Tuesday 30 October 2007

बंगाली उर्दू की सायरी

गीला कोरता हूँ ना शूखा कोरता हूँ
तुम शाला मोत रोहो ये ही दूआ कोरता हूँ।

(keywords: गीला, शूखा , शाला मोत, कोरता। थैँकू शर लोगो।

कोई आरज़ू नहीं है


सुनिये कि पडोसन में महमूद अपनी महबूबा को क्या टाइगर सुना रहे है.

Sunday 28 October 2007

ट्रक ड्राइवरों के नाम

चलती है गाड़ी उड़ती है धूल
जलते हैं दुश्मन खिलते हैं फूल

14 का फूल 45 का माला
बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला
(गाड़ी के नंबर के हिसाब से लिखा जाता है, यानी इस मामले में 1445 नंबर का ट्रक)

टाटा में जन्मी
राँची में सिंगार हुआ
धनबाद से लदके चली
ड्राइवर से प्यार हुआ
(टाटा का ट्रक इंजन जिसकी बॉडी राँची में तैयार हुई और उसके बाद छपरा के ड्राइवर के प्यार में गिरफ्तार हुई)

मालिक तो अच्छा इंसान है
मगर चमचों से परेशान है
(ट्रक मालिक के दोस्तों चमचों के नाम ड्राइवर का संदेश)

मालिक की बीवी धनवंती
मालिक की गाड़ी बसंती
जलता है इराक़ का पानी
ड्राइवर का पसीना और खून
तब रोटी मिलती है दो जून
(एक श्रमजीवी ड्राइवर का बयान)

महबूबा की याद

महबूबा की याद में डिसेंट्री हो गई
बहती है आँख मेरी राह बदलकर

हमने तो उनकी याद में ज़िंदगी गुज़ार दी,


हमने तो उनकी याद में ज़िंदगी गुज़ार दी,


हमने तो उनकी याद में ज़िंदगी गुज़ार दी,

हमने तो उनकी याद में ज़िंदगी गुज़ार दी,


वो फिर नहीं आये जिन्हें कुल्फ़ी उधार दी!

Saturday 27 October 2007

वे din

मेरी आंखों से दो बूंद आंसू जो टपके
उसने परखनली में लिया टेस्ट कर लिया


यह शेर कभी केमेस्टरी लैब की दीवार के साए में लिखा गया था )

Friday 26 October 2007

Soliloqui

mere sheron me numaya hai ek mukhtalif si VARIETY,

kahan main aur kahan ye blogiyon ki MUTUAL ADMIRATION SOCIETY!!

Thursday 25 October 2007

मूंछ के बाल काले और सर के बाल सफ़ेद

जब मैंने सस्ता शेर शुरू किया तो मैंने सबसे पहला आमंत्रण विमल भाई को भेजा.अभी तक जानी हुई दुनिया में विमल भाई ही वो व्यक्ति हैं जिनके साथ मेरी ज़िंदगी के ठहाकों का अस्सी प्रतिशत हिस्सा जुड़ा हुआ है.


.तेइस साल पुरानी एक फ़ोटो: बाएं विमल भाई और दाएं मेरा ठहाका

दैनिक जीवन से ऐसी स्थितियों को observe कर लेने की ऐसी extraordinary नज़र फिर मुझे सिर्फ़ राजदीप रंधावा में मिली जो कि आजकल जयपुर के एक एफ़एम रेडियो का ज़िम्मा संभाल रहे हैं. बहरहाल. मैं कई दिनों से ये सोचने में लगा था कि क्या समय के डंडों ने उनकी पुरानी धूल झाड़ डाली है...तभी याद आया पुरनियों का वो मुहावरा चोर चोरी से जाये हेराफेरी से न जाये . तो मैंने उनकी हेराफेरी तलाशना शुरू की. सस्ता शेर की शुरुआत में उन्होंने जो शेर भेजे हैं उनसे मुझे यक़ीन हो गया है कि शेर अभी बूढ़ा नहीं हुआ है. सस्ता शेर में मैंने सात शेरों पर एक लतीफ़े का जो बोनस घोषित किया है वो आइडिया विमल भाई के जग प्रसिद्ध लतीफ़ों को जगह देने का ही है. उन्होंने अभी इस दिशा में खुद क़दम नहीं बढ़ाया है लेकिन हर अपराधी अपने पीछे सूराग़ छोड़ जाता है की तर्ज़ पर आज सुबह मुझे जो सूराग़ मिला उसे पेश कर रहा हूं और इसी के साथ सस्ता शेर में उनसे इस सिलसिले को बढ़ाने की गुज़ारिश कर रहा हू.
नीचे लिखे हिस्से को पूरा पढने के लिये यहां क्लिक करें.

एक बार मै अपने ऑफ़िस की सीढियो से नीचे उतर रहा था तो मेरे एक सीनियर रास्ते में मिल गये, मैने क्या देखा, कि उनकी मूंछ के बाल उनके सर के बालों से कुछ ज़्यादा ही काले नज़र आ रहा थे . मैने इसका राज़ पूछा, तो उन्होने बताया कि मेरी मूंछ की उम्र सर के बालो से सोलह साल कम है, लेकिन ये बताना कि ये कमाल किसी रंग का है, इससे कन्नी काट गये.

Wednesday 24 October 2007

SCHIZOPHRENIA

SIR JI HEMA HEMA HAI ,REKHA REKHA HAI!
KYON JI PAAS ME KOI DARU KA THEKA HAI?

पी शराब तो

पी रात भर शराब तो रात कट गई /

सुबह किया हिसाब तो पेंट फट गई //

बता क्यूं ?

फिर वही शाम ,वही ग़म, वही तनहाई है
मुझ को समझाने तेरी मां क्यूं चली आई है ?

Tuesday 23 October 2007

कल्लोपरी की आसिकी


खुदा की देन है मेरे महबूब का काला रंग
तिल बनाना चाहा था स्याही बिखर गई

Monday 22 October 2007

Code of conduct(Haryana chapter)

IMLI SE KHATTA NEEMBU , NEEM SE KARELA KADVA

JO NA PEEVE NA PEEN DE AISA YAAR BHADVA!!

जनाज़ा रोककर मेरा


यह नया प्लेयर अविनाश वाया विमल हम तक पहुँचा है. आभार.

दारू ख़राब ला के

दारू ख़राब ला के बचाए जो चार सौ
दो टैक्सी में खर्च हुए दो इलाज में

(ज़फर साब से माफ़ी के साथ)

Sunday 21 October 2007

SANNATE KE ASHAAR


CHALE HAI HAVA SAYEN-SAYEN , DEEVAR PE TASVEER HILTI HAI
CHALE HAI HAVA SAYEN-SAYEN , DEEVAR PE TASVEER HILTI HAI
AUR SHER TUMKO APNE SUNAKAR,
AUR SHER TUMKO APNE SUNAKAR,
AUR SHER TUMKO APNE SUNAKAR,

DIL KO ..AJI DIL KO...HAANJI DIL KO

BADI TASKEEN MILTI HAI!!

Friday 19 October 2007

मेरी मौत से कितना फ़ायदा होगा...


ये जीवन बीमा वाले भी बड़े बेशर्मी से पेश आते हैं
मेरी मौत से कितना फ़ायदा होगा ये घंटों तक मेरी बीबी को समझाते हैं!







Wednesday 17 October 2007

A AB LAUT CHALEN( O BUDHDHI JEEVI!!)

mar chuka FREUD chala gaya KAMOO,
bhot ho gaya london- paris aao chalen PALAMOO

Tuesday 16 October 2007

KAFIA & MAFIA

JO KARE HAIN NUKTA CHI BAHOT AUR UTHAVEN HAIN MUDDA KAAFIYE KA,

SAMAJ LEEJO MERI JAAN UNKO TUM MEMBER SHAYRI KE MAFIYE KA !!

elaan-e-jung

MUJKO YARO MAAF KARNA KI KAAFIYA ZARA TANG HAI,

SHAAYRI KE KHALIFON SE CHUNANCHE AJ MERI JUNG HAI.
Yaar daad bi de diya karo kabhi!!

Sunday 14 October 2007

मुझे जला देना या

मुझे जला देना या दफना देना ,
मरते समय एक घूंट रम पिला देना /

मै ताजमहल नही मांगता यारो ,
मेरी कब्र पर एक गर्ल्स होस्टल खुलवा देना
//

मोब्बत

थाली पड़ी है खाली उल्टा पड़ा गिलास ।।
साजन तेरी याद में भूख लगे ना प्यास ।।

BAKHAT BAKHAT KI BAAT

RAAM RAAJ ME DOODH MILE AR KISHAN RAAJ ME GHEE,

KALJUG ME MADIRA BHALI JAISE MILE TU PEE.

मुनीश के लिए

मांगे सै ना जिन मिलै़, ना मांगै से रम्म
अपनी दारू पीजिए, बिस्तर परिए धम्म।

(आज के लिए बहुत हो गया)

हिंदी साहित्य का सवा सेर

इक डाकू बोला चोर से, मुझे रोक, चोर न बन जाऊं
कवि बोला नामवर से, कहिं फोक लोर न बन जाऊं

टोटल भदेस दुबारा

पाद - ए - मेहबूब ने इक गुलशन पशेमां कर दिया
बन्दा मगर डट्टा रहा खिड़की से बाहर देखता

टोटल भदेस

पाद - ए - मेहबूब से टुक टेढ़ी न हुई नाक
हैरां हैं मिरी नाक का वो सबर देख के (वास्तविकता)

बो निगह तो ज़रा फेरे, मैं नाक बन्द कर लूं
बिस्कू तो मजा आ रिया है मिरी कबर देख के (ग़ैब)

(इरफान ! ज़रा ग़ैब वाला हिस्सा देख लओ साब और दुरुस्त कल्लो या हटा लओ )

Saturday 13 October 2007

पारम्परिक कम्यूनिस्टों के लोकगीतों की पहली पंक्तियों से बना शेर

तेरे खेतों में रसिया घुटनों घुटनों पानी (लेनिनवादी)
तेरे खेतों में चाइना गरदन गरदन पानी (माओवादी)

UA 02 6675

कीचड़ में पैर रखोगी तो धोना पड़ेगा
ड्राइवर से शादी करोगी तो रोना पड़ेगा

नदी किनारे

नदी किनारे कव्वा बैठा, मैं समझूं तोता
जानम तेरी याद में, मैं रात भर रोता

हू फ़िदा

ग़र गधी के कान में कह दूं कि तुझ पर हूं फ़िदा /

है यकीं मुझको कि वोह भी घास खाना छोड़ दे
//

क्या ये शेर है?

छोटा लुहार लुहार, बड़ा लुहार टाटा
छोटा मोची मोची, बड़ा मोची बाटा

मेह्बूब का वादा!!



मेरे मेहबूब ने वादा किया है पाँचवे दिन का...
किसी से सुन लिया होगा ये दुनिया चार दिन की है...

MERE MEHBUB NE WADA KIYA HAI PANCHWE DIN KA...
KISI SE SUN LIYA HOGA YE DUNIYA CHAR DIN KI HAI...

DEFINING MOMENTS!!

SHAYRI JITNI LIKHO KAM HAI
SHAYRI JITNI LIKHO VO KAM HAI..........
gehrai dekhen--
DARASAL SUKHANVAR KI YE DIMAGI- BALGAM HAI!!

Friday 12 October 2007

वाकई सस्ता शेर

कपडे की थेली, थेली में आटा
जा रए हो, तुमको मेरी टाटा।

eed ka chand

ईद के चांद का क्या देखा देखा ना देखा /
तुम्ही नकाब उठा दो के ईद हो जाये //

Thursday 11 October 2007

आज के वास्ते जमीलुद्दीन आली का एक आखिरी दोहा

आज भी रोये कोयल बानी, कव्वे मारें तान
आज भी वीर खुले सीने और भांड चलायें बान।


* १९२६ में जन्मे जमीलुद्दीन आली पाकिस्तान के विख्यात कवि हैं। आली ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी से एक दफा चुनाव भी लड़ा था। अलबत्ता उस में वे हार गए थे। एक बेहतरीन गद्यकार के रुप में भी वे काफी नाम कमा चुके हैं और धारदार राजनैतिक व्यंग्य के लिए पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय भी हैं। करीब बीस साल पहले गुलाम अली ने उनकी एक ग़ज़ल गाई थी। तभी मुझे ये दोहे नैनीताल में मेरे परम आदरणीय उस्तादों में एक स्वर्गीय अवस्थी मास्साब ने सुनाये थे। मास्साब को गुलाम अली की गाई उस ग़ज़ल का मतला बहुत पसंद था:

"फिर उस से मिले जिस की खातिर बदनाम हुए, बदनाम हुए।
थे खास बहुत अब तक 'आली' अब आम हुए, अब आम हुए."

जमीलुद्दीन आली का एक और दोहा

बिस उगलें हैं जिनकी जबानें, सड़ गए जिन के नाम
आज भी जब हूँ बरसा बरसे, आय उन्हीं के काम.

जमीलुद्दीन आली का एक और दोहा

कविता, शिक्षा, चित्रकला का सौदा रोज़ का खेल
अन्दर मन की आँखें नीची बाहर मूंछ पे तेल।

जमीलुद्दीन आली का एक दोहा

जिनके पड़ोसी भी नहीं जाने हैं उनके शुभ नाम
लंदन, बंबई, हॉलीवुड में वे सब कविता राम।

बाग्बां की बेटी और उसका आसिक

आसिक कहता है:

" ए बाग्बां की बेटी हमसे हुई क्यों बाग़ी
दो सेब तुझ से मांगे, कच्चे दिए ना दागी।"

बाग्बां की बेटी का उत्तर (क्या मीटर दुरुस्त किये जाने की दरकार रखता है भाईलोगो? सुझाव दें।) :

" ए बादशाह मेरे हम हैं गुलाम तेरे
टहनी पकड़ हिला ले, जितने गिरे वो तेरे।"

Wednesday 10 October 2007

ASHOK KABAADI KI KHATIR

yahan vahahan ke jaane kahan hum ghooma kiye zamane me
mahol pursukoon paya magar ek tere KABAADKHAANE me!!

बुढो का इश्क़

कोन कहता हें कि बूढ़े इश्क़ नही करते /

करते तो हें पर उनके चर्चे नही होते /

दो सवालों के जवाब दें : एक मैथ्स का एक समाजशास्त्र का

एक:

एक आशिक एक दिन में जाता उन्नीस मील
तीन आशिक कितने दिन में जायेंगे पच्चीस मील।

दो:

मादर-ए-लैला ने तो ब्याही ना लैला क़ैस से
तुम अगर लैला की माँ होते तो क्या करते, लिखो!

अब कलम से इजारबंद ही डाल (' सहाफी से')


(कुछ दिन पहले मैंने अपनी कमजोर पड़ रही याददाश्त से इस नज़्म की दो गलतसलत पंक्तियां लिख दीं थीं सस्ता शेर पर। तब से बेचैन था। कल दिन भर सारा घर छान मारा और अपने कबाड़ से ये नज़्म वाली 'पहल' खोज डाली। ज्ञान जी और उर्दू से हिंदी में लिप्यान्तरण करने वाली परवीन खान को आभार के साथ साथियों के लिए पेश है पूरी नज़्म।)

हबीब जालिब की नज़्म

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको राज़ाअत पसंद कह के ताल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल


*सहाफी : पत्रकार

Tuesday 9 October 2007

उठ के बेठ जाता हूं


बिस्तर बिछा के रात को मैं लेट जाता हूं,
तेरी याद आती है तो उठ के बेठ जाता हूं।

शेर ले लो शेर!


ले लो, ले लो मेरी तुकबंदियां, ये सस्ते ताज़ा शेर हैं,
मज़ा लो जनाब
इनका, ये बिन गुठली के बेर हैं !

बू


एक बू सी आ रही है, कहीं कुछ जल रहा है
शेर मेरे पढ़ के कोई हाथ मल रहा है

इस मुल्क में


इस मुल्क में जिस शख्स को सौंपे गए जो काम थे,
उस शख्स ने उस काम की भद्द पीट के रख दी।

(ओरिजनल शेर में कुछ परिवर्तन करने पड़े। लेकिन सुधीजन अपने हिसाब से 'डिकोड' कर पाने में सक्षम् होंगे।)

Monday 8 October 2007

अशोक पांडे को सप्रेम.....


मिल गये नेट-कैफ़े में आज जनाब अब्दुर्रहीम खानखाना,
अमा,मिल गये नेट-कैफ़े में आज जनाब अब्दुर्रहीम खानखाना,
देखा के मुस्का रए हैं ओ बी पढ़-पढ के कबाड़खाना

दिल में तुम हो,
नज़र में तुम हो,
सांसों में तुम हो,
यादों में तुम हो,
domex वाले अंकल ठीक ही कहते हैं...किटाणु हर जगह रहते हैं..!!

प्यार हुआ करे !!



लोग कहते हैं कि प्यार में नींद उड़ जाती है...
अरे!कोई हमसे भी प्यार करें...कम्बख़्त नींद बहुत आती है...!

चांद और सूरज


कभी सूरज ने भी की होगी मोहब्बत चाँद से
तभी तो चाँद में दाग है
मुमकिन है की चाँद ने की होगी बेवफाई
तभी तो सूरज में आग है

CONFESSIONS

KAMBAKHAT EK KHAAJ HAI SAAYRI JISKO HAME KHUJAANA HAI/

YE BATIYANA IS- US BLOG PE YARO FAKAT BAHANA HAI!!
bolo tara rara tara rara ........

मीडिया के लिए

बहुत साल पहले 'पहल' के किसी अंक में एक पाकिस्तानी शायर (शायद शिकेब जलाली) की नज़्म पढी थी। उसी का मुखड़ा पेश है (बाक़ी याद नहीं है। किसी भाई के पास हो तो कृपा कर के भेजें। नज़्म का शीर्षक था 'सहाफी से' . बाई द वे ,पत्रकार को उर्दू में सहाफी कहा जाता है. ) :

मुल्क की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
अब कलम से इजारबन्द ही डाल.

बहुत पुरानी सायरी







मेरे अति प्रिय फिल्मकार मित्र राजीव (जिनके ज्ञान की मैं बहुत कद्र करता हूँ), अक्सर ये चार लैना सुनाते हैं. हर बार वे यह भी पूछते हैं कि मुसाफिर हंसता क्यों है। आपको पता हो तो बतायें, गरीब का भला हो जाएगा।


घंटाघर की चार घड़ी
चारों में ज़ंजीर पड़ी,
जब भी घंटा बजता था
खड़ा मुसाफिर हंसता था।

काव्यांजलि


अमा चले गये अकबर क़बर में, चचा भी छोड़ गये अकेला,
ज़रा उम्मीद थी जिनसे वो भी हुए बरामद लगाये हुए ठेला

ज़रा उम्मीद थी जिनसे वो अब लगाते हैं ठेला (इरफ़ान का सुझाव)

मुझे बाथरूम जाना है (माफ़ी चचा)

जीजा मुझे रोके है जो खींचे है मुझे गुस्ल
बाबा मेरे पीछे है भतीजा मिरे आगे।

मेरा ठेला


दौलत को लगा के आग, हम ने खेल ये खेला था
कोई पूछे तो बता देना पांडे जी का ठेला था।

Sunday 7 October 2007

' ओल्ड मौंक' मुनीश को उस से भी ओल्ड मौंक का सलाम

कल पी रहे शराब थे होटल के हाल में
अब हाय हाय कर रहे हैं अस्पताल में।

-अकबर इलाहाबादी

जैसे उड़ी जहाज कौ पंछी

सस्ता शेर आज तक लिखा नहीं गया।
इसलिये सारे यारों से माफी के साथ ! ये उम्मीद भी कि उस सबसे सस्ते शेर को हम लोग ही पैदा करेंगे।

अब मैंने कहीं नहीं जाना बाबू साहेब

पहले वही कि
'जंगल में रहता हूँ शेर मत समझना।
मैं तुम्हारा ही हूँ गेर मत समझना।'


ये एंट्री इरफान के नाम :

तोते के पांव आम के कन्धों पे जो पड़े
तोती के आम पक गए पेटी में जो धरे ।

oonche log oonchi pasand

Bhool nahi pata vo chitvan aj bhi mera chitt,
mera sara kaavya karm hai ussi ke nimitt!

Saturday 6 October 2007

kamar hi nahi he

लोग कहते हें उनके कमर ही नही हे /

तो फिर वो कमरबंद कँहा बांधते हे /

Friday 5 October 2007

ऋतू बीत ना जाये सावन की

हे अष्ठपुत्री सौभाग्यावती ना सोचो नैहर जावन की
दिल मे उमंग अब भी मेरे, हो भले उमरिया बावन की

अब तो हो सजनी लूप्वती चिन्ता ना किसी के आवन की
सारा आसाढ़ यूं ही बीता ऋतु बीत ना जाये सावन की

माशूक मेरा गंजा है


कौन कहता है कि माशूक मेरा गंजा है
चांद के सिर पे कहीँ बाल हुआ करते हैं

हम घर में घुस जायें!


ख़ुदा करे इन हसीनों के मां-बाप मर जायें,
बहाना मौत का हो और हम घर में घुस जायें!

तेल लगाके चल दिये


वो आये हमारी क़ब्र पे, दिया बुझाके चल दिये!
दिये में जो तेल था, वो सिर में लगा के चल दिये!!

अरुण मधुमय देश


यार दिलदार शख्स पीने पिलानेवाले सबको अज़ीज़ होते हैं
बाक़ी सब तो महात्मा या खालिस धतूरे के बीज होते हैं

एक ही बोतल है



पीता नही हूँ इसलिये मस्जिद मे बैठकर
एक बोतल है कहीं मुल्ला ना छीन ले ।

किसकी मजाल है



किसकी मजाल है जो रोके दिलेर को
यूं तो गर्दिश मे कुत्ते भी घेर लेते है शेर
को

Wednesday 3 October 2007

शायरी गुड़गांव की

लो बांध लो नाव इस ठांव ओ बंधु
हमें तो जाना है गुड़गांव बंधु
दिल्ली और गुड़गांव के दरम्यां कोई नदी बहती नहीं
बहोत याद आती है वो लड़की जो मोहल्ले में अब रहती नहीं

madhu samay-2

मानो ना मानो तुम कुछ भी कहो बिरादर
ब्रांड भतेरे दारू के पर ओल्ड मंक है सबका फ़ादर

उट्ठे नहीं लेट गये...


हज़रते बूम जहां बेठ गये, बेठ गये
जूतियां लाख पड़ीं, उट्ठे नहीं लेट गये

पैंट ख़राब हो जाती है...


शेर कहना कोई आसान नहीं है ऐ दोस्त,
पैंट ख़राब हो जाती है, जब शेर निकल आता है.

करते हाय-हाय चलो


जनाज़ेवालों न जल्दी क़दम बढाए चलो,
उसी का कुंचा है कुछ करते हाय-हाय चलो,

बोना आलू


बाद मरने के मेरी क़ब्र पे बोना आलू,
लोग समझेंगे चाट का शौक़ीन था.

Tuesday 2 October 2007

उपेक्षित काव्य

धूल धूसरित ट्रक की कमर पर खुदा वो शेर भी एक काव्य है,
किंतु मद में स्वयंभू विद्वता के हो उसकी उपेक्षा ये सहज संभाव्य है
दाहिनी ओर पढ़ें और टिप्पणी इसी पृष्ठ पर भेजें.

बहुत मंगल काज है बंधु

बहुत मंगल काज बंधु हमारे ब्लॉग पे हो रहा है
अब चौंक उठेगा ये ज़माना जो पांव पसारे सो रहा है
अब तक तिरस्कृत काव्य को नये सोपान देकर,
बीज उजले भविष्य के हर कॉन्ट्रीब्यूटर बो रहा है
बहुत सुंदर काज बंधु इस ब्लॉग पर हो रहा है
है कोई निर्लज्ज अधम आलोचक?
है कोई निर्लज्ज अधम आलोचक?
...
जो बाट पिटने की जोह रहा है!!

तबला और मैं

मैंने तुझे चाहा अबला समझ कर
मैंने तुझे चाहा अबला समझ कर
मैंने तुझे चाहा अबला समझ कर
...
...
तेरे बाप ने मुझे पीटा तबला समझ कर.


[यह उनके लिए नहीं है]

Monday 1 October 2007

madhu samay

IS diljalon ki mehfil me kuch dillagi bhi jaroori hai'
IS diljalon ki mehfil me kuch dillagi bhi zaroori hai,
madhu premion ka asirvad chahoonga..............
IS diljalon ki mehfil me kuch dillagi bhi zaroori hai
ama RUM chot karti hai seedhi ye WHISKEY to ji hajoori hai!!