Friday 29 February 2008
नई बहस
न बात चीत बस कांव कांव
मूंडी हिलाओ हां में सब ,
या फिर सुनो मेरी खांव खांव
अहवाल-ए-जीस्त : दूसरा संस्करण
मुग़ल-ए-आज़म अब हमें रकीब सारे बताने लगे
(जो भी वर्ज़न ठीक लगे, वही पसंद करें। मेरे लिए यह एक बड़ी पुरानी थीम है। थैंक्यू साब लोग।)
वो बोली ''मैं रही रदीफ सी ज्यों की त्यों ''
मित्रों आपको कोई जवानी की प्रेमिका कभी अधेड़ावस्था में मिली है । हमें मिली तो श्रीमती सरोज व्यास का शेर पेल गई । क्यों, दरअस्ल में वे तो वैसी की वैसी ही नजर आ रहीं थीं ( जय हो ब्यूटी पार्लर) जैसी हमें जवानी में मिलीं थीं मगर हम तो उस अवस्था का अंश भी नहीं बचे थे । और इसीलिये वो शेर कह गईं कि
ये है मौसमों का कोई असर, या ग़ज़ल का कोई निज़ाम है
मैं रही रदीफ़ सी ज्यूं की त्यूं, तुम्हीं काफि़ये से बदल गए
धरती तारे, पहाड़, पत्थर
धरती तारे, पहाड़, पत्थर
धरती तारे, पहाड़, पत्थर
इकहत्तर, बहत्तर, चौहत्तर।
(तिहत्तर का मत सोचिये वो छुट्टी पर है)
जिसे दिल दिया वो दिल्ली चली गयी
जिसे प्यार किया वो इटली चली गयी।
दिल ने कहा, खुदकुशी कर ले जालिम
बिजली को हाथ लगाया तो बिजली चली गयी।
दिल को पता था वो जरूर आयेगी
दिल को पता था वो जरूर आयेगी
पर कभी सोचा ना था जब आयेगी
अपना बॉयफ्रैंड^ भी साथ लायेगी।
^हसबैंड भी पढ़ सकते हैं।
Thursday 28 February 2008
शायर में भभकती फायर : विचार माला --१
' एक हमें आँख की लड़ाई मार गयी ;
दूसरी हमेशा की तन्हाई मार गई ;
सोच सोच में जो सोच आई मार गई ;
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई ;
और बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ...
महंगाई मार गई .......
दोस्तों शायर शायरी करता है और सस्ती महंगी जैसी बन पड़ेगी वो करेगा ! लेकिन सस्ते शेर पे अब कुछ ऐसी बातें भी शेयर करने का वक़्त क्या नहीं आ गया है की जिस से शायर को ये भी पता चलता रहे के बढ़िया समान सस्ते दामों पर कहाँ से खरीदा जा सकता है ,मसलन मुझे फिल्मों की डीवीडी खरीदने का एक व्यसन सा था और मैं दिल्ली के पालिका बाज़ार से १०० रुपैय्ये की पायरेटेड डीवीडी खरीद कर भी इसलिए खुश होता था की उनकी quality बढ़िया थी और ४०० रुपैय्ये की ओरिजनल खरीदने की मेरी हैसियत न थी । उस रोज़ जब एक आवारा लड़के ने मुझे पुरानी दिल्ली की लाजपत राय मार्केट जाने की सलाह दी तो सहसा यकीन न हुआ मगर जब जाकर देखा तो पैरों तले की ज़मीन कद्दावर पहाड़ में तब्दील हो गई चूँकि वहां झक्कास quality की GODFATHER-the triology मात्र ३० भारतीय रुपिय्ये में मिल रही थी ! खुशी से ज्यादा मुझे अफ़सोस हुआ इस बात का की मैंने कितनी कमाई,जो कतई हराम की न थी , यूं ही जानकारी के अभाव में उड़ा दी । हो सकता है विदेशों में बैठे ब्लागरों को मेरी इन बातों से कोई सरोकार महसूस न हो मगर वो हर हिंदुस्तानी ब्लोगिया जिसे अपनी गाढी कमाई
से ही साहित्य, सिनेमा , आशिकी और सैरे -गुलशन के मजे लूटने हैं और भात रान्ध्ते हुए सस्ते शेर भी कहने हैं कम से कम वो यहाँ अपने ऐसे अनुभव हमसे ज़रुर बांटेगा की जिस से 'महंगाई के दौर में राहत की साँस' वाली बात सही साबित हो --ऐसी मेरी बिस्वास है !
तरदामनी पर शेख हमारी न जाइए
तरदामनी पर शेख़ हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें
इधर खुदा है, उधर खुदा है
तुम्हारा चेहरा मोती समान, तुम्हारा चेहरा मोती समान
मोती हमारे कुत्ते का नाम।
इधर खुदा है, उधर खुदा है, जिधर देखो उधर खुदा है
इधर-उधर बस खुदा ही खुदा है,
जिधर नही खुदा है, उधर कल खुदेगा।
तुमको देखा, तुमको देखा तो ये ख्याल आया
पागलों के स्टॉक में एक नया माल आया।
तू मेरे दिल में ऐसे समायी है
जैसे बाजरे के खेत में भैंस घुस आयी है।
बन्दे मातरम:भाग दो
अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई
क्या हम को समझ रखा है तुमने हम कांग्रेसिये लीडर हैं
हो भैंस चराने की न लियाक़त, पार्लिमेंट के मेम्बर हैं
हम नरक बना दें भारत को, यानी हम लोग मिनिस्टर हैं
मालिक हैं सफ़ेद-ओ-सियाह के हम, हम हिन्दुस्तां के मुकद्दर हैं
भारत की दुखती छाती पर भारी से भारी पत्थर हैं
- बन्दे मातरम
हम गांधियत के नख़रे, गांधियत के नाज़-ए-बेज़ा हैं
जनता को पयामे-ए-मर्ग हैं हम, भारत के गले का फ़न्दा हैं
हम हिन्द की मिटी उमीदें हैं, जम्हूर का ख़ून-ए-तमन्ना हैं
हैं सत्य अहिंसा की मूरत क्या तुमको बताएं हम क्या हैं
सब लोग हमारी जय बोलें, हम राजा हैं, हम परजा हैं
-बन्दे मातरम
Wednesday 27 February 2008
बन्दे मातरम : भाग एक
राष्ट्र भाषा
सब जुमले टेढ़े मेढ़े हैं अलफ़ाज़ भी हैं रोड़े पत्थर
और इस पर तुर्रा यह है कि हम मीर-ओ-ग़ालिब से हैं बढ़कर
हम नाक काट लें 'सादी' की हम शेक्सपीयर के हैं हमसर
यह अहले-अदब ये अहले-क़लम किस बोली के हैं छूमन्तर
ये क़ौमी ज़बां के मोजिद हैं साहित्यरत्न, विद्यासागर
-बन्दे मातरम
सुनने वालों के होश उड़ें वह पढ़ के मारते अन्छर हैं
जो मुंह में आए बोल जाएं, शब्दों के यहां दलिद्दर हैं
इस ऊबड़ खाबड़ बोली में, वो झक्कड़ और बवंडर हैं
मतलब ही जड़ से उखड़ जाए वो चलते हुए चलित्तर हैं
हम 'हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान' लिख लोढ़ा हैं पढ़ पत्थर हैं
-बन्दे मातरम
Tuesday 26 February 2008
लौंडा फ़क़ीर का: भाग दो
सर बार - बार मोड़े है सिगरेट जलाने को
गरदन को भी हिलाए है उल्लू बनाने को
मैं राग जानता हूं फ़क़त यह जताने को
रह रह के मुस्कराए है लौंडा फ़क़ीर का
लिक्खा पढ़ा तो ख़ैर कुछ भी नहीं मगर
उलझा के डाल देता है अख़बार इधर उधर
जाहिल है और इल्म का रखता है कर्रो-फ़र*
रंगीन मोटी मोटी किताबें ख़रीद कर
शोकेस में जमाए है लौंडा फ़क़ीर का
मैदान में वो ठहरेंगे जो सूर बीर हैं
वो क्या धनी बनेंगे जो दिल के फ़क़ीर हैं
इस जग में पोतड़ों* के जो यारो अमीर हैं
गम्भीरता लिए हुए जिनके ख़मीर* हैं
मुफ़्त उनकी धज उड़ाए है लौंडा फ़क़ीर का
गर हम कहें कि आज तो राजा हो जमघटा
हो नाच रंग, धूम धड़क्का अहा अहा
तो एक हीजड़ा भी न बुलवाए बेहया
पर एक इशारा पाते ही बस कोतवाल का
सौ रंडियां नचाए है लौंडा फ़क़ीर का
(*ख़िफ़्फ़त: झेंप, कर्रो-फ़र: शान, पोतड़ा: पुश्तैनी अमीर )
Saturday 23 February 2008
वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास उर्फ़ राजरिशी की आमद
कलचर की अहमियत को समझाते हैं
क्या फूल हिमाक़त के वो बरसाते हैं
दरशन हुए जाते हैं अभी भक्तों को
सोटा लिए वो राजरिशी आते हैं
झटकाते हैं कांधे अड़बड़ा जाते हैं
ऐसे मौकों पै हड़बड़ा जाते हैं
सुलझाने को कहिए कोई उलझी हुई बात
तो राजरिशी जी गड़बड़ा जाते हैं
वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास
सब राजरिशी से बांधे बैठे थे आस
भूखों प्यासों को आज वक़्ते-तक़रीर
वो डांट पिलाई न रही न रही भूख न प्यास
(माज़ी परस्त: अतीत का पुजारी, राजरिशी: राजर्षि, वक़्ते-तक़रीर: भाषण के समय)
Friday 22 February 2008
लौंडा फ़क़ीर का
बाबा नज़ीर अकबराबादी की ज़मीन पर शायर-ए-वतन जोश मलीहाबादी साहब ने एक कविता लिखी थी: "धन राजा का जो पाए है लौंडा फ़क़ीर का". बेदख़ल मनीषा पांडे को नज़्र है उसी से एक टुकड़ा और साथ में ये दोस्ताना सलाह भी कि 'डोन्ट यू वरी'.
असली अमीर हूं ये दिखाने के वास्ते
पुरखों की गन्दगी को छिपाने के वास्ते
जो बू बसी है उसको दबाने के वास्ते
माता-पिता का मैल छिपाने के वास्ते
दो दो पहर नहाए है लौंडा फ़क़ीर का
धन राजा का जो पाए है लौंडा फ़क़ीर का
क्या क्या ठसक दिखाए है लौंडा फ़क़ीर का
नदिरे-पुदिरे और आगरे
क्या आप कभी चने के झाड़ पर चढ़े हैं नहीं, तो चढ़ कर देखें
आज कल चने के झाड़ पर चढ़ाने का बड़ा फैशन है । हर कोई एक दूसरे को चने के झाड़ पर चढ़ा रहा है और उसके बाद जो हालत चने के झाड़ पर चढ़ने वाले की होती है वो तो ऊपर वाला ही जानता है । ब्लागिंग में भी आजकल चने के झाड़ पर चढ़ाने का खेल खूब चल रहा है तू मुझे चढ़ा मैं तुझे चढ़ाऊं वाली स्टाइल में । मेरे एक मित्र हुआ करते थे मिर्जा इछावरी उन्होंने ''खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है '' का चरबा करके चने के झाड़ पर ये शेर निकाला था शेर में एक शब्द उन्होंने अपनी फितरत के हिसाब से असंसदीय लिया था हालंकि वो शब्द शेर की जान है पर मैं उसे नहीं दे पा रहा हूं केवल प्रतीक से काम ले रहा हूं ।
चढ़ा दो झाड़ पर उसको चने के और फिर पूछो
बता तो #### के तू भला उतरेगा अब कैसे
हालंकि शेर बहर से बाहर बनाया है पर मिर्जा काथा कि जो हमने लिखा वो ही व्याकरण है अब मिर्जा के इतने भी बुरे दिन नहीं आए हैं कि हजार साल पुरानी व्याकरण पर शेर क कहना हें ।
पतनशील होने से पहले की मासूम यादें!!
सन ८० की दहाई के किसी साल फिलिम director जनाब परकाश मैहरा की एक तस्वीर 'शराबी' देखी थी जिसमे इश्तेहारी दुनिया और सनीमे की मशहूर हस्ती अमीताभ बचन साहब ने एक ख़ाली गिलास कांच का अपने फौलादी पंजे में थामा हुआ है और अपनी ही रौ में बुदबुदाते हैं ,मगर कुछ इस तरेह के दूसरे हज़रात भी सुन सकें , आप फरमाते हैं : ''अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मैखाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में "
उनका ये कहना सनीमा हॉल में मौजूद उन खावातीनो -हज्रात को भी उदासी के समंदर में धकेल देता है जिन्होंने कभी मय चक्खी तो दूर जनाब सूँघी तक नहीं है ! आज वही शेर जब जनाब विजे शंकर ने यहाँ पेश किया तो पुरानी यादें ताज़ा हो आयीं । वैसे ये शेर किसी मशहूर शाइर का मालूम देता है , अगरचे किसी दानिश्मंद को मालूम हो तो यहाँ इत्तिला देके ओल्ड मंक का एक पव्वा हमसे कुबूल फरमाएं .
Thursday 21 February 2008
शहंशाह-ए-शेर है कि-
अब तो उतनी भी नहीं मिलती है तेरे मैखाने में
जितनी हम कभी छोड़ दिया करते थे पैमाने में.
Will his love be like his rum,
Yes it will, yes it will,
Intoxicating all night long,
Yes it will, yes it will,
everybody,Drink, drink this toast,
Drink this wedding toast,Drink oh drink this toast,
To the two we love the most,
Did he wed her in the spring,
Yes he did, yes he did,
Did he give her finger ring,
Yes he did, yes he did,
Will her cooking be the best,
Yes it will, yes it will,
Make his belly split his best,
Yes it will, yes it will,
Will she be a perfect wife,
Yes she will, yes she will,
Make him work hard all his life,
Yes she will, yes she will,
Will we dance and sing all night-a,
Yes we will, yes we will,
Eat up evrything inside,
Yes we will, yes we will
मैं और मेरी 'कवीता ' !
कल कू ये एक 'वाद' बने ये भी सहज संभाव्य है.!!
इत्यलम अर्थात इत्ता ही भोत है !
चप्पल के बाद अब कीचड़ की बारी
Tuesday 19 February 2008
चलिये आज कुछ चप्पलें खाने की बात करें आपने खाईं हैं कि नहीं पर इन्होंने तो खार्इं हैं नहीं तो खुद ही देख लें
आशिकी में चप्पलें खाने का भी इक पुण्य है
जो मज़ा उसमें है मिलता वो मज़ा तो दिव्य है
हाय चप्पल वो सनम की जो भिड़ीं गोबर में थीं
स्वाद के आगे पिटाई का गुनह भी क्षम्य है
Monday 18 February 2008
हम तो आलरेडी पतन शील हैं !
ओक्सीज़ंन तक के टोटे पड़ जाते हैं साहब!! सो पतन शीलता के इस कारवां को यूं ही आगे बढाना जारी रखना है ,फतह हमारी ही होगी । आज कई खवातीन और साहेबान फरमा रहे हैं की वो 'पतनशील' होने के खाहिश्मंद हैं , की अब उनसे रहा नहीं जाता । अल्लाह उन्हें कामयाबी दे , हम तो पहले ही पतनशील हैं । जय सस्तापन! जय बोर्ची !
तेरे इंतजार में मेरे प्यारे
इस बीच ढेर सारा साहित्य ट्रकों के पीछे दिख गया है.
भाइयों और भैनों!मैं एक छोटे से गाम का कबाड़ी दिल्ली में किताबॉं का मेला देखने गया था .मेला भी खूब देखा और झेला भी खूब. एक ट्रक के पीछे दिक्खा एक शेर भौत बोफ्फाइन लगा मिजको . उसको हियां पै पेश कर रिया हूं.भाई लोग बुरा ना मान जाएं इसलिए डर भी रिया हूं.चलो जी एडवांस में माफी-'खेर', लो जी 'सेर' -अब काहे की देर-
बागों में मोरनी पूछे , चौराहे पर पूछे सिपाही
बोम्बे में एसवरिया पूछे ७९११ क्यों नहीं आई.
Thursday 14 February 2008
Pay Commission -6( छठा वेतन आयोग)
Wednesday 13 February 2008
पिया पिया पिया न पिया
पेश हैं ये चंद लाइनें हमारे इन्हीं दो रणबाँकुरों के लिये-
मरीज़े इश्क़ का क्या है जिया जिया जिया न जिया
बस एक साँस का मसला है लिया लिया लिया न लिया
हमारे नाम से आया है जाम महफ़िल में
ये और बात है हमने पिया पिया पिया पिया न पिया.
Friday 8 February 2008
पता उनको नहीं कुछ आठ बच्चों की मदर होकर
प्रसिद्ध हास्य कवि स्व काका हाथरसी की ये ग़ज़ल सुनें वैसे तो इसमें भी बच्चे हैं पर वे मेहबूबा के न होकर अपनी ही सगी वाली पत्नी के हैं
हमीं से पूछती हैं भाव चीनी और चावल के
पता उनको नहीं कुछ आठ बच्चों की मदर होकर
घटापा चल रहा अपना, मुटापा बढ़ रहा उनका
कुचल देंगें मेरी सैकिल, किसी दिन ट्रेक्टर होकर
Thursday 7 February 2008
हमें जिससे मुहब्बत थी उसे अब चार बच्चे हैं
मुहब्बत भी बड़ी अजीब चीज़ होती है लोग कहते हैं कि मैं उससे मुहब्बत करता था पर कह नहीं पाया यो शर्म में ही रह गया । मगर उम्र शर्म थोड़े ही देखती है आपकी शर्म ही शर्म में उसके बच्चे आकर आपको मामा भी कह जाते हैं । वरिष्ठ कवि आदरणीय प्रदीप जी चौबे की ये ग़ज़ल तो ये ही कहती है
ग़रीबों का बहुत कम हो गया है वेट क्या कीजे
अमीरों का निकलता आ रहा है पेट क्या कीजे
हमें जिससे मुहब्बत थी उसे अब चार बच्चे हैं
तकल्लुफ़ में बिरादर हो गए हम लेट क्या कीजे
Tuesday 5 February 2008
गालिब उठो सलाम करो सेठ आ गया
गालिब उठो सलाम करो सेठ आ गया,
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.
हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई - क्या अपने अल्हड़ बीकानेरी जी की ये ग़ज़ल सुनी है, नहीं तो पूरी यहां देखें
अब जब सभी लोग दूसरों की ही पेल रहे हैं तो मैं क्यों पीछे रहूं । पर आज जो गज़ल़ मैं दे रहा हूं ये जनाब अल्हड़ बीकानेरी जी की एक मज़ेदार ग़ज़ल है जिसका हर शेर आनंद देता है ।
लफ़्ज़ तोड़े मरोड़े ग़ज़ल हो गई
सर रदीफ़ों के फोड़े ग़ज़ल हो गई
लीद करके अदीबों की महफि़ल में कल
हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई
ले के माइक गधा इक लगा रेंकने
हाथ पब्लिक ने जोड़े गज़ल हो गई
पंख चींटी के निकले बनी शाइरा
आन लिपटे मकोड़े ग़ज़ल हो गई
Monday 4 February 2008
तेरे भाई वो नाटे और काले याद आते हैं
अपने शेर पेलने का एक अलग ही आंनद होता है और उस आनंद की ही खातिर हमने सस्ता शेर ज्वाइन ( अवैतनिक) करने के बाद से कोई भी शेर किसी दूसरे का नहीं पेला । अपने ही माल से काम चला रहे हैं बल्कि रोज ही खुद ही लिख रहे हैं । और लिख लिख कर ही पेल रहे हैं ।
चलिये एक और याद का शेर प्रस्तुत है
तेरे भाई वो नाटे और काले याद आते हैं
जो होते होते रे गय वो ही 'साले' याद आते हैं
ग़ज़ब मारा था उस जालिम ने यूं के आज तक हमको
वो दिन जो हस्पतालों में निकाले याद आते हैं
१८ वां बैनुलअक़्वामी किताब मेला पूरे शबाब पर !!
मनीषा ,अशोक, इरफान ,जनचेतना के सचेतक और रोहित उमराव
मैं और मेरा मफलर !!
ढाई आखर के प्रणेता नासिरुद्दीन के साथ !
कुतुब्फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है :सत्यम वर्मा(जनचेतना)
कौतूहल के पल !! --खरीद लूं या नहीं? सोच में इरफान
हालांकि सही शब्द-चयन के हिमायती इरफान के मुताबिक मेला ' उरूज' पर होना चाहिऐ मगर नाचीज़ की राय में ये जिस पर भी हो ,रहेगा वहीं जहाँ कि वो 'है' यानी दिल्ली के प्रगति मैदान में !लेखकों और कवियों के साथ साथ दुनिया भर के कुतुब्फरोश , किताबी कीड़े , पुस्तकालयों के कमीशन एजेंट और बुक फेयर में 'affair' की गुंजाइश ताड़ने वाले छंटे हुए लोग इस १८ वें विश्व पुस्तक मेले में इन दिनों दिल्ली आये हुए हैं सो हम भी पहली फुरसत में वहाँ पहुंच गए और पहुंच कर क्या देखते हैं कि ब्लौग - बिरादरी की कई धुरंधर , नामचीन हस्तियाँ मौकाये-वारदात पे पहले ही मौजूद हैं जिनमें मोहल्ले के दादा अविनाश हैं , वेब दुनिया की सहाफी मनीषा पाण्डेय हैं , ढाई आखर के नासिरुद्दीन हैं , इरफान भी हैं और साथ में हैं रोहित उमराव और कबाड़खाना फेम अशोक पांडे !! संवाद और जनचेतना प्रकाशन ने अशोक की कई नयी-पुरानी किताबें सजाई हैं जिनमें विश्व प्रसिद्ध कथा साहित्य एवं कविताओं के अनुवाद पाठकों के बीच चर्चा का मौजूं बने हैं । अशोक के कुछ युवा fans की बेक़रारी बडे- बडों में जलन पैदा करने को काफी है ! इससे पहले की प्रगति मैदान में कोई अग्नि काण्ड हो
वहाँ से निकल लेने में भलाई समझी जाती है और खास लोगों का काफिला 'इन्नोवा' में सवार हो जा पहुँचता है दक्षिण दिल्ली के एक गेस्ट हाऊस जहाँ रानी खेत क्लब की कुछ यादें फिर ताज़ा होती हैं , सस्ता शेर की निंदा करने वाले अल्पज्ञ ब्लोगरों की बुद्धि पर तरस खाया जाता है ......जहाँ तक बात पीने की है तो chivas रीगल और वाट 69 दोनो हैं मगर चूंकि सोनापानी ट्रिप की शिवास अभी उतरी नहीं है सो वाट 69 की डाट खोली जाती है और एक पैग लेने के कुछ ही क्षण बाद मन ही मन मैं कह उठता हूँ --
न पूछ ऐ दोस्त कि क्या है मेरा sun- sign / होश ले गयी मेरा ये वाट सिक्स्टी नाइन !! आमीन !!
Sunday 3 February 2008
Saturday 2 February 2008
दिल की चूल हिली देखी तो
दफ़न कबर में करने की भी उन ने रस्म बनाई क्या
(मरहूम दोस्त और अजीमुश्शान शायर हरजीत से माफ़ी सहित)
आदमी
ठंड की वजह से जाड़ा हुआ
जो सीधा खड़ा था वो आड़ा हुआ
इफ़्फ़न 'घुर्मामारकुण्डवी' को देखो
पजामा बने था, सो नाड़ा हुआ
एक पुराना ट्रक वाला शेर
मालिक की ज़िन्दगी अंडे और केक पर
ड्राइवर की ज़िन्दगी स्टेरिंग और ब्रेक पर
Friday 1 February 2008
'सस्ता शेर' पर एक अखबार में लगी न्यूज़: मुनीश के हवाले से
"शायरिंग ऐसी हुई" - एक रिसाला लिखता है