Friday 29 February 2008

नई बहस

ये नया शिगूफ़ा है गांव गांव ,
न बात चीत बस कांव कांव
मूंडी हिलाओ हां में सब ,
या फिर सुनो मेरी खांव खांव

अहवाल-ए-जीस्त : दूसरा संस्करण

हुए दस बरस, हम दोस्तो, हैं लगे हुए एक हॉल में
मुग़ल-ए-आज़म अब हमें रकीब सारे बताने लगे

(जो भी वर्ज़न ठीक लगे, वही पसंद करें। मेरे लिए यह एक बड़ी पुरानी थीम है। थैंक्यू साब लोग।)

अहवाल-ए-जीस्त

लगी पड़ी दस साल से है, एक ही टॉकीज़ में
ज़िन्दगी अपनी रफ़ीको, 'मुग़ल-ए-आज़म' हो गई.

वो बोली ''मैं रही रदीफ सी ज्‍यों की त्‍यों ''

मित्रों आपको कोई जवानी की प्रेमिका कभी अधेड़ावस्‍था में मिली है । हमें  मिली तो श्रीमती सरोज व्‍यास का शेर पेल गई । क्‍यों, दरअस्‍ल में वे तो वैसी की वैसी ही नजर आ रहीं थीं ( जय हो ब्‍यूटी पार्लर) जैसी हमें जवानी में मिलीं थीं मगर हम तो उस अवस्‍था का अंश भी नहीं बचे थे । और इसीलिये वो शेर कह गईं कि

ये है मौसमों का कोई असर, या ग़ज़ल का कोई निज़ाम है

मैं रही रदीफ़ सी ज्‍यूं की त्‍यूं, तुम्‍हीं काफि़ये से बदल गए

धरती तारे, पहाड़, पत्थर

मनीषा के आंसू मुझ से देखे ना गये ;) इसलिये कल जिन ३ शेरों का जिक्र उन्होंने किया वो उनकी तरफ से मानिये और उन ३ शेरों की कमी पूरी करने के लिये अपनी सस्ती डायरी के रद्दी के पन्नों से उतारे ये ३ शेर अर्ज है। हाँ, हाँ मुझे मालूम है ये कुछ ज्यादा ही सस्ते हैं लेकिन अभी अभी मुनीश ने मंहगाई मार गयी गाया था उसका असर थोड़ी देर तो रहेगा ना।

धरती तारे, पहाड़, पत्थर
धरती तारे, पहाड़, पत्थर
इकहत्तर, बहत्तर, चौहत्तर।
(तिहत्तर का मत सोचिये वो छुट्टी पर है)

जिसे दिल दिया वो दिल्ली चली गयी
जिसे प्यार किया वो इटली चली गयी।
दिल ने कहा, खुदकुशी कर ले जालिम
बिजली को हाथ लगाया तो बिजली चली गयी।

दिल को पता था वो जरूर आयेगी
दिल को पता था वो जरूर आयेगी
पर कभी सोचा ना था जब आयेगी
अपना बॉयफ्रैंड^ भी साथ लायेगी।

^हसबैंड भी पढ़ सकते हैं।

Thursday 28 February 2008

शायर में भभकती फायर : विचार माला --१

"साहित्यिक अभिरुचि वालों का हाथ गणित मे अक्स़र तंग देखा गया है और इसीलिए मोल-भाव या 'बारगेनिंग' में वो कच्चे होते हैं " -अपने निजी अनुभव के आधार पर जब मैंने ये बात उस रोज़ अशोक पांडे से कही तो आपने एक वाकया बयां किया जो मेरी अवधारणा को और मज़बूत करता है । आज तो खैर देश भर में इम्पोर्टेड चीनी समान मिलता है ,पहले पहाडी जगहों पे या आस-पास ही मिलता रहा है । पांडे जी ने बताया की एक दफे कुछ नेपाली चीन में बने 'मिंक blanket' लेकर उनके यहाँ आए , उन्हें वो बहुत अच्छे लगे हालांकि दाम बहुत ज़ियादा--४४०० रुपये थे । फ़िर भी वो दाम चुकाने को राज़ी हो गए चूँकि ऐसा कोई सामान उन्होंने यहाँ के बाज़ार में देखा न था सो तुलना भी क्या करते ! लेकिन माता जी ने उन्हें रोका और कहा की वो कंबलों के सिर्फ़ ८०० रुपये देंगी , ये सुन कर भाव धम्म से सीधा २००० पर आ गया और अंततोगत्वा १२०० रुपैय्ये में वो नेपाली सहर्ष कम्बल बेच कर गए ! इस प्रकार के अनुभव मुझे भी अक्स़र हुए हैं मगर फिर भी मोल भाव में अक्स़र मात खाता रहा हूँ । इन दिनों बजट का मौसम है और 'सस्ते शेर' की punch line कहती है 'महंगाई के दौर में राहत की साँस ' सो इसीलिए अशोक भाई के कम्बल को संबल मान कर हाले दिल बयान कर बैठा । ऐसे में फ़िल्म 'रोटी कपडा और मकां' की एक क़व्वाली के ये अल्फाज़ याद आते हैं :
' एक हमें आँख की लड़ाई मार गयी ;
दूसरी हमेशा की तन्हाई मार गई ;
सोच सोच में जो सोच आई मार गई ;
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई ;
और बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ...
महंगाई मार गई .......

दोस्तों शायर शायरी करता है और सस्ती महंगी जैसी बन पड़ेगी वो करेगा ! लेकिन सस्ते शेर पे अब कुछ ऐसी बातें भी शेयर करने का वक़्त क्या नहीं आ गया है की जिस से शायर को ये भी पता चलता रहे के बढ़िया समान सस्ते दामों पर कहाँ से खरीदा जा सकता है ,मसलन मुझे फिल्मों की डीवीडी खरीदने का एक व्यसन सा था और मैं दिल्ली के पालिका बाज़ार से १०० रुपैय्ये की पायरेटेड डीवीडी खरीद कर भी इसलिए खुश होता था की उनकी quality बढ़िया थी और ४०० रुपैय्ये की ओरिजनल खरीदने की मेरी हैसियत न थी । उस रोज़ जब एक आवारा लड़के ने मुझे पुरानी दिल्ली की लाजपत राय मार्केट जाने की सलाह दी तो सहसा यकीन न हुआ मगर जब जाकर देखा तो पैरों तले की ज़मीन कद्दावर पहाड़ में तब्दील हो गई चूँकि वहां झक्कास quality की GODFATHER-the triology मात्र ३० भारतीय रुपिय्ये में मिल रही थी ! खुशी से ज्यादा मुझे अफ़सोस हुआ इस बात का की मैंने कितनी कमाई,जो कतई हराम की न थी , यूं ही जानकारी के अभाव में उड़ा दी । हो सकता है विदेशों में बैठे ब्लागरों को मेरी इन बातों से कोई सरोकार महसूस न हो मगर वो हर हिंदुस्तानी ब्लोगिया जिसे अपनी गाढी कमाई
से ही साहित्य, सिनेमा , आशिकी और सैरे -गुलशन के मजे लूटने हैं और भात रान्ध्ते हुए सस्ते शेर भी कहने हैं कम से कम वो यहाँ अपने ऐसे अनुभव हमसे ज़रुर बांटेगा की जिस से 'महंगाई के दौर में राहत की साँस' वाली बात सही साबित हो --ऐसी मेरी बिस्वास है !

तरदामनी पर शेख हमारी न जाइए

बहुत सालों के बाद पिछले दिनों पत्रकार मित्र श्रीप्रकाश टकरा गए दिल्ली में। उन की मारफ़त एक जबरजस्त सेर आया है। सो पहला शुक्रिया उन का। एक शुक्रिया उन साहेब के वास्ते ड्यू है जो इस महान कविता के मूल रचनाकार का नाम-पता मुहैय्या कराएगा।

तरदामनी पर शेख़ हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें

इधर खुदा है, उधर खुदा है

सस्ते शेरों की इस महफिल में निठल्ले का सलाम, अब ज्यादा दुआ सलाम ना करते हुए सीधे अर्ज किया है -

तुम्हारा चेहरा मोती समान, तुम्हारा चेहरा मोती समान
मोती हमारे कुत्ते का नाम।

इधर खुदा है, उधर खुदा है, जिधर देखो उधर खुदा है
इधर-उधर बस खुदा ही खुदा है,
जिधर नही खुदा है, उधर कल खुदेगा।

तुमको देखा, तुमको देखा तो ये ख्याल आया
पागलों के स्टॉक में एक नया माल आया।

तू मेरे दिल में ऐसे समायी है
जैसे बाजरे के खेत में भैंस घुस आयी है।
साग़र खय्यामी साहब फ़रमाते हैं-

सर पे चुपड़ के तेल वो बे-बाल हो गयीं
दो ही मिनट में सोणी से महिवाल हो गयीं.

बन्दे मातरम:भाग दो

कल आपने राष्ट्रभाषा पर फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की लम्बी कविता 'बन्दे मातरम' के दो टुकड़े पढ़े थे। एक और हिस्सा देखिए:

अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई

क्या हम को समझ रखा है तुमने हम कांग्रेसिये लीडर हैं
हो भैंस चराने की न लियाक़त, पार्लिमेंट के मेम्बर हैं
हम नरक बना दें भारत को, यानी हम लोग मिनिस्टर हैं
मालिक हैं सफ़ेद-ओ-सियाह के हम, हम हिन्दुस्तां के मुकद्दर हैं
भारत की दुखती छाती पर भारी से भारी पत्थर हैं
- बन्दे मातरम

हम गांधियत के नख़रे, गांधियत के नाज़-ए-बेज़ा हैं
जनता को पयामे-ए-मर्ग हैं हम, भारत के गले का फ़न्दा हैं
हम हिन्द की मिटी उमीदें हैं, जम्हूर का ख़ून-ए-तमन्ना हैं
हैं सत्य अहिंसा की मूरत क्या तुमको बताएं हम क्या हैं
सब लोग हमारी जय बोलें, हम राजा हैं, हम परजा हैं
-बन्दे मातरम

Wednesday 27 February 2008

बन्दे मातरम : भाग एक

फ़िराक़ साहब ने किसी ज़माने में भारत की सांस्कृतिक और राजनैतिक दरिद्रता, खोखली देशभक्ति और भाषाप्रेम के साथ साथ अफ़सरशाही पर तंज़ कसते हुए एक लम्बी कविता लिखी थी 'बन्दे मातरम'। सस्ते शेरों की महफ़िल में क्यूं न उसके कुछ हिस्से पेश किए जाएं। यह रही पहली किस्त:

राष्ट्र भाषा

सब जुमले टेढ़े मेढ़े हैं अलफ़ाज़ भी हैं रोड़े पत्थर
और इस पर तुर्रा यह है कि हम मीर-ओ-ग़ालिब से हैं बढ़कर
हम नाक काट लें 'सादी' की हम शेक्सपीयर के हैं हमसर
यह अहले-अदब ये अहले-क़लम किस बोली के हैं छूमन्तर
ये क़ौमी ज़बां के मोजिद हैं साहित्यरत्न, विद्यासागर
-बन्दे मातरम

सुनने वालों के होश उड़ें वह पढ़ के मारते अन्छर हैं
जो मुंह में आए बोल जाएं, शब्दों के यहां दलिद्दर हैं
इस ऊबड़ खाबड़ बोली में, वो झक्कड़ और बवंडर हैं
मतलब ही जड़ से उखड़ जाए वो चलते हुए चलित्तर हैं
हम 'हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान' लिख लोढ़ा हैं पढ़ पत्थर हैं
-बन्दे मातरम

Tuesday 26 February 2008

लौंडा फ़क़ीर का: भाग दो

जब रागिनी सुने है तो ख़िफ़्फ़त* मिटाने को
सर बार - बार मोड़े है सिगरेट जलाने को
गरदन को भी हिलाए है उल्लू बनाने को
मैं राग जानता हूं फ़क़त यह जताने को
रह रह के मुस्कराए है लौंडा फ़क़ीर का

लिक्खा पढ़ा तो ख़ैर कुछ भी नहीं मगर
उलझा के डाल देता है अख़बार इधर उधर
जाहिल है और इल्म का रखता है कर्रो-फ़र*
रंगीन मोटी मोटी किताबें ख़रीद कर
शोकेस में जमाए है लौंडा फ़क़ीर का

मैदान में वो ठहरेंगे जो सूर बीर हैं
वो क्या धनी बनेंगे जो दिल के फ़क़ीर हैं
इस जग में पोतड़ों* के जो यारो अमीर हैं
गम्भीरता लिए हुए जिनके ख़मीर* हैं
मुफ़्त उनकी धज उड़ाए है लौंडा फ़क़ीर का

गर हम कहें कि आज तो राजा हो जमघटा
हो नाच रंग, धूम धड़क्का अहा अहा
तो एक हीजड़ा भी न बुलवाए बेहया
पर एक इशारा पाते ही बस कोतवाल का
सौ रंडियां नचाए है लौंडा फ़क़ीर का

(*ख़िफ़्फ़त: झेंप, कर्रो-फ़र: शान, पोतड़ा: पुश्तैनी अमीर )

Saturday 23 February 2008

वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास उर्फ़ राजरिशी की आमद

'फ़िराक़' गोरखपुरी की लम्बी नज़्म 'माज़ी परस्त' से तीन टुकड़े:

कलचर की अहमियत को समझाते हैं
क्या फूल हिमाक़त के वो बरसाते हैं
दरशन हुए जाते हैं अभी भक्तों को
सोटा लिए वो राजरिशी आते हैं

झटकाते हैं कांधे अड़बड़ा जाते हैं
ऐसे मौकों पै हड़बड़ा जाते हैं
सुलझाने को कहिए कोई उलझी हुई बात
तो राजरिशी जी गड़बड़ा जाते हैं

वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास
सब राजरिशी से बांधे बैठे थे आस
भूखों प्यासों को आज वक़्ते-तक़रीर
वो डांट पिलाई न रही न रही भूख न प्यास

(माज़ी परस्त: अतीत का पुजारी, राजरिशी: राजर्षि, वक़्ते-तक़रीर: भाषण के समय)

Friday 22 February 2008

लौंडा फ़क़ीर का

बाबा नज़ीर अकबराबादी की ज़मीन पर शायर-ए-वतन जोश मलीहाबादी साहब ने एक कविता लिखी थी: "धन राजा का जो पाए है लौंडा फ़क़ीर का". बेदख़ल मनीषा पांडे को नज़्र है उसी से एक टुकड़ा और साथ में ये दोस्ताना सलाह भी कि 'डोन्ट यू वरी'.

असली अमीर हूं ये दिखाने के वास्ते

पुरखों की गन्दगी को छिपाने के वास्ते

जो बू बसी है उसको दबाने के वास्ते

माता-पिता का मैल छिपाने के वास्ते

दो दो पहर नहाए है लौंडा फ़क़ीर का

धन राजा का जो पाए है लौंडा फ़क़ीर का

क्या क्या ठसक दिखाए है लौंडा फ़क़ीर का

नदिरे-पुदिरे और आगरे

लोकप्रिय टीवी कॉमेडी शो ऑफ़िस-ऑफिस से अपनी अलग पहचान बनानेवाले हेमंत पांडे की एक सस्ती कविता पेश है.

क्‍या आप कभी चने के झाड़ पर चढ़े हैं नहीं, तो चढ़ कर देखें

चने के झाड़ पर चढाने के अर्थ होता है झूठी प्रशंसा और चापलूसी करके किसीको फुला देना और कोई भी काम करवा लेना, और बाद में उसके मजे भी लेना .
आज कल चने के झाड़ पर चढ़ाने का बड़ा फैशन है । हर कोई एक दूसरे को चने के झाड़ पर चढ़ा रहा है और उसके बाद जो हालत चने के झाड़ पर चढ़ने वाले की होती है वो तो ऊपर वाला ही जानता है । ब्‍लागिंग में भी आजकल चने के झाड़ पर चढ़ाने का खेल खूब चल रहा है तू मुझे चढ़ा मैं तुझे चढ़ाऊं वाली स्‍टाइल में । मेरे एक मित्र हुआ करते थे मिर्जा इछावरी उन्‍होंने ''खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर से पहले खुदा बन्‍दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्‍या है '' का चरबा करके चने के झाड़ पर ये शेर निकाला था शेर में एक शब्‍द उन्‍होंने अपनी फितरत के हिसाब से असंसदीय लिया था हालंकि वो शब्‍द शेर की जान है पर मैं उसे नहीं दे पा रहा हूं केवल प्रतीक से काम ले रहा हूं ।
चढ़ा दो झाड़ पर उसको चने के और फिर पूछो
बता तो #### के तू भला उतरेगा अब कैसे

हालंकि शेर बहर से बाहर बनाया है पर मिर्जा काथा कि जो हमने लिखा वो ही व्‍याकरण है अब मिर्जा के इतने भी बुरे दिन नहीं आए हैं कि हजार साल पुरानी व्‍याकरण पर शेर क कहना हें ।

पतनशील होने से पहले की मासूम यादें!!


सन ८० की दहाई के किसी साल फिलिम director जनाब परकाश मैहरा की एक तस्वीर 'शराबी' देखी थी जिसमे इश्तेहारी दुनिया और सनीमे की मशहूर हस्ती अमीताभ बचन साहब ने एक ख़ाली गिलास कांच का अपने फौलादी पंजे में थामा हुआ है और अपनी ही रौ में बुदबुदाते हैं ,मगर कुछ इस तरेह के दूसरे हज़रात भी सुन सकें , आप फरमाते हैं : ''अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मैखाने में

जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में "
उनका ये कहना सनीमा हॉल में मौजूद उन खावातीनो -हज्रात को भी उदासी के समंदर में धकेल देता है जिन्होंने कभी मय चक्खी तो दूर जनाब सूँघी तक नहीं है ! आज वही शेर जब जनाब विजे शंकर ने यहाँ पेश किया तो पुरानी यादें ताज़ा हो आयीं । वैसे ये शेर किसी मशहूर शाइर का मालूम देता है , अगरचे किसी दानिश्मंद को मालूम हो तो यहाँ इत्तिला देके ओल्ड मंक का एक पव्वा हमसे कुबूल फरमाएं .

Thursday 21 February 2008

गुजिश्ता पखवाड़े भर से नुक्कड़ के मैखाने में बलानोशी फरमा रहा था. दिमाग़ उड़नखटोला हो रहा है.इसी हालत में एक शेर पकड़ लाया हूँ- इसे 'सस्ता शेर' में अब तक बोतलों की फोटुएँ दिखा-दिखा कर दारू से तर शेरों के एक्शन का रिएक्शन समझा जाए- अलबत्ता ये शेर कहने वाला अब भी मैखाने के मैनेजर से बहस फंसाये हुए है-

शहंशाह-ए-शेर है कि-

अब तो उतनी भी नहीं मिलती है तेरे मैखाने में

जितनी हम कभी छोड़ दिया करते थे पैमाने में.
हैरी बैलाफ़ोन्टे से सस्ते यार परिचित हैं ही। रम और अन्य तरल-गरल पदार्थों के मर्म को समझने वालों की खि़दमत में लीजिए आज उनका एक शानदार गीत।

Will his love be like his rum,
Yes it will, yes it will,
Intoxicating all night long,
Yes it will, yes it will,

everybody,Drink, drink this toast,
Drink this wedding toast,Drink oh drink this toast,
To the two we love the most,
Did he wed her in the spring,

Yes he did, yes he did,
Did he give her finger ring,
Yes he did, yes he did,
Will her cooking be the best,
Yes it will, yes it will,

Make his belly split his best,
Yes it will, yes it will,
Will she be a perfect wife,
Yes she will, yes she will,

Make him work hard all his life,
Yes she will, yes she will,
Will we dance and sing all night-a,
Yes we will, yes we will,
Eat up evrything inside,
Yes we will, yes we will

मैं और मेरी 'कवीता ' !

यह मेरा कलुषित काव्यकर्म जो आज गर्हित और त्याज्य है/
कल कू ये एक 'वाद' बने ये भी सहज संभाव्य है.!!

इत्यलम अर्थात इत्ता ही भोत है !

चप्पल के बाद अब कीचड़ की बारी

भाई मुनीश के लिए एक पूर्ण पतित कॉमिक आमन्त्रण:
भेज रहा हूं पतन निमन्त्रण, प्यारे तुम्हें पटाने को
ये कीचड़ के महाग्रास, तुम भूल न जाना खाने को.

Tuesday 19 February 2008

चलिये आज कुछ चप्‍पलें खाने की बात करें आपने खाईं हैं कि नहीं पर इन्‍होंने तो खार्इं हैं नहीं तो खुद ही देख लें

चप्‍पलें खाना भी एक प्रकार का पुण्‍य का ही काम हैं क्‍योंकि वो प्रमिका के पैरों की चप्‍पलें होती हैं जिसके पैरों के नीचे आपके आने वाले बच्‍चों की जन्‍नतें हो सकती हैं अगर आपने आज चप्‍पलें खालीं तो । ये महाशय भी चप्‍पलें ही खा रहे हैं
आशिकी में चप्‍पलें खाने का भी इक पुण्‍य है
जो मज़ा उसमें है मिलता वो मज़ा तो दिव्‍य है
हाय चप्‍पल वो सनम की जो भिड़ीं गोबर में थीं
स्‍वाद के आगे पिटाई का गुनह भी क्षम्‍य है



Monday 18 February 2008

हम तो आलरेडी पतन शील हैं !

सस्ते शेर का ही एक वो 'सेन्सेक्स' है हाज़रीन जो बलंदियों को छूने की बजाये हमेशा नीचे ही नीचे को चलता है !वाजेह रहे कि हरदिल अज़ीज़ शख्सियत के धनी और ब्लोग्गिंग की दुनिया के जगमग तारे इरफान ने इस ब्लॉग को तश्कील देते वक़्त ये हलफ उठाया था के ,चूँकि गहराई मापने के लिए नीचे उतरना पड़ता है सो शायरी को भी जितना नीचे गिराया जा सकता है उतना गिराने का मौक़ा वो हर ख़ास ओ आम को फराहम करायेंगे । उनकी इसी नेकनीयती की बदौलत शायरी का ये ट्रक बड़े तह्ज़ीबो -तमद्दुन से हिकारत का ये सफर तै कर रहा है और करता रहेगा ये बात पूरे यकीन से कही जा सकती है । बड़े बड़े खज़ाने और राज़ गहराइयों में ही पोशीदा हैं , बलंदियों पे क्या रखा है वहां तो
ओक्सीज़ंन तक के टोटे पड़ जाते हैं साहब!! सो पतन शीलता के इस कारवां को यूं ही आगे बढाना जारी रखना है ,फतह हमारी ही होगी । आज कई खवातीन और साहेबान फरमा रहे हैं की वो 'पतनशील' होने के खाहिश्मंद हैं , की अब उनसे रहा नहीं जाता । अल्लाह उन्हें कामयाबी दे , हम तो पहले ही पतनशील हैं । जय सस्तापन! जय बोर्ची !

तेरे इंतजार में मेरे प्यारे

फरवरी का महीना घुमक्कड़ी के नाम पे लिख गया है.
इस बीच ढेर सारा साहित्य ट्रकों के पीछे दिख गया है.
भाइयों और भैनों!मैं एक छोटे से गाम का कबाड़ी दिल्ली में किताबॉं का मेला देखने गया था .मेला भी खूब देखा और झेला भी खूब. एक ट्रक के पीछे दिक्खा एक शेर भौत बोफ्फाइन लगा मिजको . उसको हियां पै पेश कर रिया हूं.भाई लोग बुरा ना मान जाएं इसलिए डर भी रिया हूं.चलो जी एडवांस में माफी-'खेर', लो जी 'सेर' -अब काहे की देर-
बागों में मोरनी पूछे , चौराहे पर पूछे सिपाही
बोम्बे में एसवरिया पूछे ७९११ क्यों नहीं आई.

Thursday 14 February 2008

श्रध्दा भरा अध्धा !!


कुछ थे कुछ हैं और कुछ ब्लॉगर अभी होंगे महान

इस खुशी में क्यूं न यारों कर लेवें थोड़ा मद्यपान!!

Pay Commission -6( छठा वेतन आयोग)


हर करमचारी जो है सरकारी ,फिरता ज्यों कोई खजियल कुत्ता
लार गिराता बस यही मनावे के
बढ़ जाए मेरा भत्ता !!

Wednesday 13 February 2008

पिया पिया पिया न पिया

पिछले दिनों सस्ता शेर के दो नये शायरों भाई विजयशंकर और भाई पंकज सुबीर ने क़ाबिले तारीफ़ बल्लेबाज़ी करके मुझे क़ायल कर दिया। मैं उन दिनों बहुत रेगुलर नहीं था और उनके लिखे पर वक़्त से दाद न भेज सका.
पेश हैं ये चंद लाइनें हमारे इन्हीं दो रणबाँकुरों के लिये-

मरीज़े इश्क़ का क्या है जिया जिया जिया जिया
बस एक साँस का मसला है लिया लिया लिया लिया
हमारे नाम से आया है जाम महफ़िल में
ये और बात है हमने पिया पिया पिया पिया पिया.

Friday 8 February 2008

पता उनको नहीं कुछ आठ बच्‍चों की मदर होकर

प्रसिद्ध हास्‍य कवि स्‍व काका हाथरसी की ये ग़ज़ल सुनें वैसे तो इसमें भी बच्‍चे हैं पर वे मेहबूबा के न होकर अपनी ही सगी वाली पत्‍नी के हैं

हमीं से पूछती हैं भाव चीनी और चावल के

पता उनको नहीं कुछ आठ बच्‍चों की मदर होकर

घटापा चल रहा अपना, मुटापा बढ़ रहा उनका

कुचल देंगें मेरी सैकिल, किसी दिन ट्रेक्‍टर होकर

Thursday 7 February 2008

हमें जिससे मुहब्‍बत थी उसे अब चार बच्‍चे हैं

मुहब्‍बत भी बड़ी अजीब चीज़ होती है लोग कहते हैं कि मैं उससे मुहब्‍बत करता था पर कह नहीं पाया यो शर्म में ही रह गया । मगर उम्र शर्म थोड़े ही देखती है आपकी शर्म ही शर्म में उसके बच्‍चे आकर आपको मामा भी कह जाते हैं ।  वरिष्‍ठ कवि आदरणीय प्रदीप जी चौबे की ये ग़ज़ल तो ये ही कहती है

ग़रीबों का बहुत कम हो गया है वेट क्‍या कीजे

अमीरों का निकलता आ रहा है पेट क्‍या कीजे

हमें जिससे मुहब्‍बत थी उसे अब चार बच्‍चे हैं

तकल्‍लुफ़ में बिरादर हो गए हम लेट क्‍या कीजे

Tuesday 5 February 2008

गालिब उठो सलाम करो सेठ आ गया

चचा गालिब नए रोल में-

गालिब उठो सलाम करो सेठ आ गया,
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.

हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई - क्‍या अपने अल्‍हड़ बीकानेरी जी की ये ग़ज़ल सुनी है, नहीं तो पूरी यहां देखें

अब जब सभी लोग दूसरों की ही पेल रहे हैं तो मैं क्‍यों पीछे रहूं । पर आज जो गज़ल़ मैं दे रहा हूं ये जनाब अल्‍हड़ बीकानेरी जी की एक मज़ेदार ग़ज़ल है जिसका हर शेर आनंद देता है ।

लफ़्ज़ तोड़े मरोड़े ग़ज़ल हो गई

सर रदीफ़ों के फोड़े ग़ज़ल हो गई

लीद करके अदीबों की महफि़ल में कल

हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई

ले के माइक गधा इक लगा रेंकने

हाथ पब्लिक ने जोड़े गज़ल हो गई

पंख चींटी के निकले बनी शाइरा

आन लिपटे मकोड़े ग़ज़ल हो गई  

Monday 4 February 2008

तेरे भाई वो नाटे और काले याद आते हैं

अपने शेर पेलने का एक अलग ही आंनद होता है और उस आनंद की ही खातिर हमने सस्‍ता शेर ज्‍वाइन ( अवैतनिक) करने के बाद से कोई भी शेर किसी दूसरे का नहीं पेला । अपने ही माल से काम चला रहे हैं बल्कि रोज ही खुद ही लिख रहे हैं । और लिख लिख कर ही पेल रहे हैं ।

चलिये एक और याद का शेर प्रस्‍तुत है

तेरे   भाई   वो नाटे   और   काले   याद   आते हैं

जो होते होते रे गय वो ही 'साले' याद आते हैं

ग़ज़ब मारा था उस जालिम ने यूं के आज तक हमको 

वो दिन जो हस्‍पतालों में निकाले याद आते हैं

१८ वां बैनुलअक़्वामी किताब मेला पूरे शबाब पर !!


मनीषा ,अशोक, इरफान ,जनचेतना के सचेतक और रोहित उमराव

मैं और मेरा मफलर !!

ढाई आखर के प्रणेता नासिरुद्दीन के साथ !

कुतुब्फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है :सत्यम वर्मा(जनचेतना)

कौतूहल के पल !! --खरीद लूं या नहीं? सोच में इरफान

हालांकि सही शब्द-चयन के हिमायती इरफान के मुताबिक मेला ' उरूज' पर होना चाहिऐ मगर नाचीज़ की राय में ये जिस पर भी हो ,रहेगा वहीं जहाँ कि वो 'है' यानी दिल्ली के प्रगति मैदान में !लेखकों और कवियों के साथ साथ दुनिया भर के कुतुब्फरोश , किताबी कीड़े , पुस्तकालयों के कमीशन एजेंट और बुक फेयर में 'affair' की गुंजाइश ताड़ने वाले छंटे हुए लोग इस १८ वें विश्व पुस्तक मेले में इन दिनों दिल्ली आये हुए हैं सो हम भी पहली फुरसत में वहाँ पहुंच गए और पहुंच कर क्या देखते हैं कि ब्लौग - बिरादरी की कई धुरंधर , नामचीन हस्तियाँ मौकाये-वारदात पे पहले ही मौजूद हैं जिनमें मोहल्ले के दादा अविनाश हैं , वेब दुनिया की सहाफी मनीषा पाण्डेय हैं , ढाई आखर के नासिरुद्दीन हैं , इरफान भी हैं और साथ में हैं रोहित उमराव और कबाड़खाना फेम अशोक पांडे !! संवाद और जनचेतना प्रकाशन ने अशोक की कई नयी-पुरानी किताबें सजाई हैं जिनमें विश्व प्रसिद्ध कथा साहित्य एवं कविताओं के अनुवाद पाठकों के बीच चर्चा का मौजूं बने हैंअशोक के कुछ युवा fans की बेक़रारी बडे- बडों में जलन पैदा करने को काफी है ! इससे पहले की प्रगति मैदान में कोई अग्नि काण्ड हो
वहाँ से निकल लेने में भलाई समझी जाती है और खास लोगों का काफिला 'इन्नोवा' में सवार हो जा पहुँचता है दक्षिण दिल्ली के एक गेस्ट हाऊस जहाँ रानी खेत क्लब की कुछ यादें फिर ताज़ा होती हैं , सस्ता शेर की निंदा करने वाले अल्पज्ञ ब्लोगरों की बुद्धि पर तरस खाया जाता है ......जहाँ तक बात पीने की है तो chivas रीगल और वाट 69 दोनो हैं मगर चूंकि सोनापानी ट्रिप की शिवास अभी उतरी नहीं है सो वाट 69 की डाट खोली जाती है और एक पैग लेने के कुछ ही क्षण बाद मन ही मन मैं कह उठता हूँ --
न पूछ ऐ दोस्त कि क्या है मेरा sun- sign / होश ले गयी मेरा ये वाट
सिक्स्टी नाइन !! आमीन !!
साग़र खैय्यामी साहब फ़रमाते हैं-

मंजन घिसा था जिनपे चमकने की आस में

रक्खे हुए हैं दांत वही अब गिलास में.

Sunday 3 February 2008

इस बार चाचा गालिब की ज़मीन पर अपना कुतुबमीनार-

बेलन है उनके हाथ में औ खटिया के नीचे मैं,

गालिब मुझे बताएं कि भागूं किधर को मैं?


-विजय सतनवी

Saturday 2 February 2008

दिल की चूल हिली देखी तो

दिल की चूल हिली देखी तो हमने तेरा नाम लिया
दफ़न कबर में करने की भी उन ने रस्म बनाई क्या

(मरहूम दोस्त और अजीमुश्शान शायर हरजीत से माफ़ी सहित)

आदमी


बचपन में वो उडाता है कन्कव्वे और जवानी में यारों फाख्ता /
फिर बुढापे में धूप सेंकता है के जैसे कोई कबूतर सज़ायाफ्ता !!
पेश-ए-खिदमत है एक भुक्तभोगी शेर-

राधा की सौत गर थी किसना की बांसुरी,
बीवी की मेरी सौतन मेरा ब्लॉग है।

- विजय सतनवी
(मज़ाक नहीं कर रहा हूँ, इस शेर को ब्लॉगबली अपने-अपने ब्लॉग का स्लोगन बना लें).

ठंड की वजह से जाड़ा हुआ

ठंड की वजह से जाड़ा हुआ
जो सीधा खड़ा था वो आड़ा हुआ
इफ़्फ़न 'घुर्मामारकुण्डवी' को देखो
पजामा बने था, सो नाड़ा हुआ

एक पुराना ट्रक वाला शेर

यह बहुत मशहूर शेर है, लेकिन पता नहीं यहां आने से कैसे रह गया। माल पुराना है, लेकिन सबसे सस्ते शेरों की तरह हमेशा मौजूं:

मालिक की ज़िन्दगी अंडे और केक पर
ड्राइवर की ज़िन्दगी स्टेरिंग और ब्रेक पर

Friday 1 February 2008

एक बार फिर .........(सिग्नेचर शेर )



कमबखत एक खाज है ये शाइरी जिसको हमें खुजाना है / इसके-- उसके ब्लौग पे तकना ये तो फ़क़त बहाना है !!

इस मर्तबा पेश-ए-खिदमत है एक क्लासिक शेर-

उचक रहा है चिड़ीमार, बांस छोटा है
ये साजिशें हैं फ़कत मेरे आशियाँ के लिए।


(ये शेर मरहूम बाक़माल अदाकार बलराज साहनी साहब ने अपनी आत्मकथा में इस्तेमाल फ़रमाया है. हमने यहाँ इस्तेमाल फ़रमाया. कोई उज्र?)

'सस्ता शेर' पर एक अखबार में लगी न्यूज़: मुनीश के हवाले से

दस बन्दों को ड्रिप चढ़ी, तीन जने हलाक़ हुए
"शायरिंग ऐसी हुई" - एक रिसाला लिखता है