खिसक गई ज़मीन तो काहें
अपने चरित्र का कोई न ठेका
महंगाई के दौर में एक राहत की सांस
इन दिनों हमारे ब्लाग जगत में एक अजीब सी परंपरा चल रही है । ये परंपरा है महान बनाने की परंपरा । अ की टिप्पणी ब को मिलती है कि आप महान हैं तो जवाब में ब की भी नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वो भी अ को ऐसी ही टिप्पणी दे । सब एक दूसरे को महान बनाने में जुटे हैं । आइये इसी पर एक कुंडली नुमा रचना देखें ।
तू मुझको टिपिया सनम, मैं तुझको टिपियाउं
तू महान बन जायेगा, और मैं भी हो जाउं
'और मैं भी हो जाउं', मेरे बनवारी सैंया
देकर टिप्पणियों का बादल, कर दे छैंया
कह 'धौंधू कवि', ये है टिप्पणियों का जादू
तू कहता मैं आलिम हूं और मैं कहता तू
हमारे एक मित्र को डाक्टर के पास ले जाना पड़ा दरअसल में उनको मानसिक कब्ज़ हो गया था । शारीरिक कब्ज़ तो आप जानते ही हैं । मानिसक कब्ज़ में दिमाग में विचार फंस जाते हैं और भड़ास की तरह बाहर नहीं निकलते । डाक्टर ने उनको जो पर्चा दिया वो प्रस्तुत है ।
ब्लागिंग ब्लागिंग खेलिये सुबह दोपहर शाम
और नहीं गर आपको दूजा कोई काम
दूजा कोई काम, धरम पत्नी ना पूछे
चले आओ कम्प्यूटर पर तुम आंखें मींचे
कह 'धौंधू कवि' जहां न कोई लेता रेगिंग
ऐसा इक कालेज हमारा है ये ब्लागिंग
बहुत दिनों से इस गली में आना ही नहीं हुआ । आज बहुत दिनों बाद आया हूं और एक कुंडलिनी टाइप की रचना पेल रहा हूं । कुडलिनी की विशेषता ये होती है कि जिस शब्द से शुरू होती है उसी पर समाप्त होती है ।
माही जी की ना गली टी ट्वन्टी में दाल
फिर भी हैं बेशर्म ये गेंडे सी है खाल
गेंडे सी है खाल, भाये पैसे की खन खन
किरकिट खेले बिन भी मिलते हैं विज्ञापन
कह 'धोंधू' कविराय, हो चुकी खूब उगाही
घर के बुद्धू लौट के घर को आजा माही