
गुज़रे  बरस  के  अक्टूबर  की दूसरी  को  हर  साल  की  तरेह  'ड्राई -डे' था  और  यार  लोग  बक्चोदी  पे आमादा  थे ! अब ऐसे में  उनका मुंह  बंद करने की कोशिश  बेकार थी ।  दिल  कह रहा था कि  जब तक मैं इनके  साथ पीने  पिलाने की महिमा  की , ड्राई डे के बाद होने वाली पार्टी  की  या फ़िर  इसकी-उसकी बुराई करूंगा  मैं इन्हे पसंद आऊँगा  वरना या ये मुझे 'महात्मा जी ' कह के कट लेंगे या फ़िर  गाली- गुप्चा होगा । उस रोज़  जब महफिल बर्खास्त हुई तो मेरे इस शेर के साथ :
यार दिलदार शख्स पीने पिलाने वाले सबको अज़ीज़ होते हैं ,
और.............बाक्की सब महात्मा या धतूरे के बीज होते हैं !!
इसके बाद मौन हुआ दो मिनट का। क्यों हुआ ? वाह जी अब मौन पे भी टैक्स लगाओगे हैं जी ?
    
यार दिलदार शख्स पीने पिलाने वाले सबको अज़ीज़ होते हैं ,
और.............बाक्की सब महात्मा या धतूरे के बीज होते हैं !!
इसके बाद मौन हुआ दो मिनट का। क्यों हुआ ? वाह जी अब मौन पे भी टैक्स लगाओगे हैं जी ?
3 comments:
वाह ! सुबह सुबह ? अच्छी फीलिंग है.
ऐसे ताज़ा ख़याल सुभु -सुभु ही आते हैं जी ! गुड मार्निंग!
वाह! वाह!
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