Wednesday, 11 February 2009

नज़्म - 'बक़रा'

क़ाश! मैं भी ऐ बकरे तेरा मालिक होता,
तो बड़े नाज़ से नखरे से बड़ी शान के साथ,
दिखा के सबको मुहल्ले में नहलाता तुझको,
तेरे दो दाँत मैं सब ही को दिखाया करता,
जब कभी सोच में डूबा मैं तुझे घुमाया करता,
तो फिर मूड मे सींगें तू मुझे मारा करता,
मैं तेरे हमलों की शिद्दत से भड़क सा जाता,
जब कभी रात को तू भागने की कोशिश करता,
मैं तेरे कान पकड़ के तुझे लातें धरता,
फिर तेरी दाढी पकड के प्यार से तुझे डाँटा करता,
"अब बता बँधी रस्सी तोड़ के जायेगा क्या?"
मुझे बेताब सा रखता तेरे भागने का नशा,
तू मेरे घर में हमेशा ही गंद मचाता रहता,
तेरी मेंगनी से मेरा घर बस्साता रहता,
कुछ नहीं तो बस तेरा बेनाम सा आशिक़ होता,
क़ाश! मैं भी ऐ बकरे तेरा मालिक होता...

3 comments:

Mohinder56 said...

क्या लिखा है भाई और किसके लिये लिखा है.. समझ नहीं आ रहा...बकरे की स्तुति हो रही है या उसे काटने की तैयारी :)

निर्मला कपिला said...

bahut badiyaa aapki manokaamna pooran ho

Anonymous said...

good one...keep writing .

by the way,when i was searching for the user friendly Indian language typing tool...found 'quillapd'. do u use the same...? try out...