Monday 29 September 2008

घर पे आये वो बाँधने राखी...

अब वो पहले से उनके गाल नहीं,
फिर भी उनकी कोई मिसाल नहीं,

अब तो है सर पे तोहमतों का बोझ, 
एक मुद्दत से सर पे बाल नहीं,

गर हवा में भी उड़ के दिखलाऊँ,
चश्म-ए-बीवी में कुछ कमाल नहीं,

लज़्ज़त-ए-हिज्र है बुढापे में,
लज़्ज़त-ए-कुर्ब का सवाल नहीं,

घर पे आये वो बाँधने राखी,
गर्मी-ए-शौक़ का कमाल नहीं,

अब भी मिलते हैं लोग मुझ जैसे,
हाँ,शरीफ़ों का अब भी अकाल नहीं..

Saturday 27 September 2008

शादी के जो अफ़साने हैं रंगीन बहुत हैं...

शादी के जो अफ़साने हैं रंगीन बहुत हैं,
लेकिन जो हक़ीक़तें हैं संगीन बहुत हैं,

इबलीस बेचारे को ही बेकार न कोसो,
इन्सान के अन्दर भी शैतान बहुत हैं,

बख्शीश की सूरत उन्हें देते रहो रिश्वत,
सरकार के दफ़्तर में मस्कीन बहुत हैं,

इस दौर के मर्दों की जो शक़्ल शुमारी,
साबित हुआ दुनिया में ख़वातीन बहुत हैं,

जब हज़रते-नासेह ने खाया मुर्ग तंवाला,
फ़रमाया कि दालों में प्रोटीन बहुत है!

Thursday 25 September 2008

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखी-ए-तहरीर का...

आशिक़ी इक मारिका है परतवे-तदबीर का,
देग चूल्हे पे चढा है मार है कफ़गीर का,

उनके डैडी ने भी आखिर फ़ैसला कर ही दिया,
मेरे उनके दरमियाँ दीवार की तामीर का,

मुस्करा कर ही फेर देते हैं गले पर छुरी,
नाम तक लेते नहीं हैं तस्मिया तक्बीर का,

उनके भाई माहिर-ए-जूडो कराटे हो गये,
आशिक़ी अब हश्र क्या होगा तेरी तदबीर का,

शायरी करते हैं लेकिन बहर् से हैं दूर दूर,
एक मिसरा तीर का तो दूसरा है मीर का,

चार टुकडों के लिये हम घर से बेघर हो गये,
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखी-ए-तहरीर का,

उनके दूल्हे से भी हम ने दोस्ती कर ली मगर,
फ़ायदा कुछ भी हुआ न हम को इस तदबीर का..

Tuesday 23 September 2008

क्यूँ नहीं देते ?

(1)
है ख्वाहिश अगर चप्पल की तो दिला क्यूँ नहीं देते,
बेगम को मुसीबत से बचा क्यूँ नहीं लेते,
पूछे अगर कोई मोची नाप पावों की,
पीठ पर जो नक़्श है दिखा क्यूँ नहीं देते...

(२)

औलाद को धन्धे पे लगा क्यूँ नहीं देते,
बुक हाथ में चंदे की थमा क्यूँ नहीं देते,
लुच्चा है, लफंगा है, अगर आप का बेटा,
बस्ती का उसे लीडर बना क्यूँ नहीं देते...

Saturday 20 September 2008

सस्ता-शे'र के शायरों के लिये खास पेशकश-

(1)

बढ रहा है क़ौम के बच्चों में ज़ौक-ए-शायरी,

गोया शायरी हर फ़र्द पर एक फ़र्ज़ है,

रहा यही आलम तो हर बच्चा पैदाइश के बाद,

साँस लेते ही पुकारेगा- "मत्ला अर्ज़ है" ! 


(2)
ये मुझको खबर है कि नहीं मुझमें कोई गुन,

लेकर के यहाँ आया हूँ मैं आज नई धुन,

तू अपनी गज़ल पढ के खिसकता है किधर को,

मैंने तो तुझे सुन लिया अब तू भी मुझे सुन...


(3)
शे'र अच्छा है,फ़न अच्छा है,क़माल अच्छा है,

देखना सब ये कहेंगे के खयाल अच्छा है,

दोस्तों आप को सुनाऊँगा नये शे'र अभी,

वो अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है...

Monday 15 September 2008

क़सम से पटाने को जी चाहता है....

पेशे-ख़िदमत है हिन्दुस्तानी खवातीन का हाले-दिल बयान करती एक सस्ती गज़ल. अनुरोध है कि पढते समय दिल में महँगी भावनाएँ न लाएँ-

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नई साड़ी लाने को जी चाहता है,
पुरानी जलाने को जी चाहता है,
 
पहनकर मोहल्ले कि सब औरतों को,
इकट्ठा दिखाने को जी चाहता है ,

मियाँजी क भारी हुआ है प्रमोशन,
सो पैसे उड़ाने को जी चाहता है,

जो बातें सुनी थीं पड़ोसन के घर में,
वो बातें बताने को जी चाहता है ,

सुना है बड़ा खूबरू है पड़ोसी,
क़सम से पटाने को जी चाहता है, 

ये हलवा जो मैने पकाया है मुझको,
उसे भी खिलाने को जी चाहता है,

बनी जब से सौतन, सहेली हमारी,
कहीं भाग जाने को जी चाहता है ,

बड़े मूड में आज आया है ज़ालिम!
उसे तड़पाने को जी चाहता है,

सुना कर उसे अपनी गज़लें धड़ाधड़,
मुसल्सल पकाने को जी चाहता है,

मुझे जितना उसने सताया है उतना,
उसे भी सताने को जी चाहता है ...

Saturday 13 September 2008

दिलजलों की शायरी

(1)
तू पहले ही है पिटा हुआ, ऊपर से दिल नाशाद न कर,
हो गई ज़मानत तो जाने दे, वो जेल के दिन अब याद ना कर,
तू उठ के रात को 12 बजे ,विह्स्की रम की फ़रियाद ना कर,
तेरी लुटिया डूब चुकी है , ऐ इश्क़ मुझे बर्बाद न कर....

(२)
खा के क़स्में प्यार की आए यहाँ,
गर्दिशों में पेंच ढीले हो गये,
ढूँढते हम फिर रहे हैं नौकरी,
और उनके हाथ पीले हो गये !!!

(३)
नंबर वाला पहन लिया चश्मा,
अब बड़ों में शुमार हमारा है,
आँखों में जो बसी थी कभी,
उसने भी अंकल कह के पुकारा है!

(४)
लड़की कहाँ से लाऊँ मै शादी के वास्ते,
शायद के इसमें मेरे मुक़द्दर् क दोष है,
अज़रा,नसीम,सना ओ सबा भी गईं,
एक शमा रह गई है सो वो भी खामोश है !

(५)
6 महीने ही में ये हाल हुआ शादी के,
साल तो दूर है फिर कभी ख्वाबों में मिलें,
इस तरह रक्खा है बेगम ने मुझे घर में,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें..

Thursday 11 September 2008

जिस क़दर जूते पड़ें आराम है !

जिस क़दर जूते पड़ें आराम है,
आशिक़ी बे-गैरती का नाम है,

खूब हैं आँखें तेरी छोटी-बड़ी,
एक है अखरोट इक बादाम है,

इश्क़ के मिस्कीं जूते खाये जा,
बाद हर तकलीफ़ के आराम है,

उफ़ मेरी लैला का मुझसे पूछ्ना,
कहिये मजनू आप ही का नाम है?

Wednesday 10 September 2008

चाँद औरों पर मरेगा क्या करेगी चाँदनी?

आज से क़रीबन 5-6 साल पहले हुल्लड़ मुरादाबादी साहब को सुनने का मौका मिला था.उनके सुनाए कुछ शेर नोट कर के ले आया था. देखें-
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चाँद औरों पर मरेगा क्या करेगी चाँदनी,
प्यार में पंगा करेगा क्या करेगी चाँदनी,

चाँद से हैं खूबसूरत भूख में दो रोटियाँ,
कोई बच्चा जब मरेगा क्या करेगी चाँदनी,

डिग्रियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं,
नौजवाँ फ़ाँके करेगा क्या करेगी चाँदनी,

जो बचा था खून वो तो सब सियासत पी गई,
खुदकुशी खटमल करेगा क्या करेगी चाँदनी,

दे रहे चालीस चैनल नंगई आकाश में,
चाँद इसमें क्या करेगा क्या करेगी चाँदनी,

साँड है पंचायती ये मत कहो नेता इसे,
देश को पूरा चरेगा क्या करेगी चाँदनी,

एक बुलबुल कर रही है आशिक़ी सय्याद से,
शर्म से माली मरेगा क्या करेगी चाँदनी,

लाख तुम फ़सलें उगा लो एकता की देश में,
इसको जब नेता चरेगा क्या करेगी चाँदनी,

ईश्वर ने सब दिया पर आज का ये आदमी,
शुक्रिया तक ना करेगा क्या करेगी चाँदनी,

गौर से देखा तो पाया प्रेमिका के मूँछ थी,
अब ये "हुल्लड़" क्या करेगा, क्या करेगी चाँदनी....

Tuesday 9 September 2008

खटमल हैं चारपाई में !

नींद यूँ भी कहाँ जुदाई में,
उस पे खटमल हैं चारपाई में,

सामने आऐं तो दुल्हन बन कर,
जान दे दूँगा मुँह दिखाई में,

खुश हुईं उनकी माँ भी अब क्या है,
उँगलियाँ घी में हैं सर कढाई में,

नहीं चेचक के दाग उस रुख पर,
मक्खियाँ लिपटी हैं मिठाई में...

Monday 8 September 2008

ख़लीफ़ा बब्बर की खोपड़ी

पढिये अशोक चक्रधर की एक कविता ....

दर्शकों का नया जत्था आया
गाइड ने उत्साह से बताया—

ये नायाब चीज़ों का
अजायबघर है,
कहीं परिन्दे की चोंच है
कहीं पर है।

ये देखिए
ये संगमरमर की शिला
एक बहुत पुरानी क़बर की है,
और इस पर जो बड़ी-सी
खोपड़ी रखी है न,
ख़लीफा बब्बर की है।

तभी एक दर्शक ने पूछा—
और ये जो
छोटी खोपड़ी रखी है
ये किनकी है ?

गाइड बोला—
है तो ये भी ख़लीफ़ा बब्बर की
पर उनके बचपन की है।

धूम से सूली चढाना याद है!

पेशे-ख़िदमत है हुसैनी खांडवी साहब की एक गज़ल, जिसमें वो अपना और हमारे शादी-शुदा पाठकों का हाले-दिल बयाँ कर रहे हैं-

आज तक वो बैण्ड-बाजे शामियाना याद है,
खुद को इतनी धूम से सूली चढाना याद है,

तीन मौके भी दिये थे काज़ी ने गौर-ओ -फ़िक्र के,
आज तक वो कीमती मौके गँवाना याद है,

घर जिसे लाये थे हम रोटी पकाने के लिये,
अब पकाती है हमें उसका पकाना याद है,

ना सिलाई जानती है ना कुकिंग मालूम है,
हाँ उसे शौहर को उँगली पर नचाना याद है,

उसकी हर इक बात पर कहना ही पड़ता है "बज़ा"
इस तरह उसका हमें बरसों बजाना याद है

मानते हैं हम "हुसैनी" हादिसा होगा शदीद,
क्यों कि तुमको वाक़या इतना पुराना याद है

-हुसैनी खांडवी

Saturday 6 September 2008

मुश्किल है अपना मेल प्रिये..

प्रस्तुत है सस्ता शेर की अब तक की सबसे ज़्यादा शब्द संख्या वाला पोस्ट। ये गीत मेरे पास रोमन लिपि में था,पर इसे देवनागरी में टंकित करने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। आज पहली बार देवनागरी में मिला, सो जैसे का तैसा चस्पा कर रहा हूँ. आशा है आपको मज़ा आयेगा-


मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम एम ए फ़र्स्ट डिवीज़न हो, मैं हुआ मैट्रिक फेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम फ़ौजी अफ़सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ,
तुम राबड़ी खीर मलाई हो, मैं तो सत्तू सप्रेटा हूँ,
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड़ के नीचे लेटा हूँ,
तुम नई मारुति लगती हो, मैं स्कूटेर लंबरेटा हूँ,
इस कदर अगर हम चुप-चुप कर आपस मे प्रेम बढ़ाएँगे,
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जाएँगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम अरब देश की घोड़ी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये,
तुम दीवाली का बोनस हो, मैं भूखो की हड़ताल प्रिये,
तुम हीरे जड़ी तश्तरी हो, मैं almuniam का थाल प्रिये,
तुम चिक्केन-सूप बिरयानी हो, मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये,
तुम हिरण-चौकरी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये,
तुम चंदन वन की लकड़ी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये,
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मारो मुझे गुलेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

मैं शनी-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो,
मैं तन से मन से कांशी राम, तुम महा चंचला माया हो,
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ,
तुम राज घाट का शांति मार्च, मैं हिंदू-मुस्लिम दंगा हूँ,
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की,
तुम हो वरदान विधता का, मैं ग़लती हूँ भगवांता की,
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम नई विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ,
तुम ए के-सैंतालीस जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ,
तुम चतुर राबड़ी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ,
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ,
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी. सिंह सा ख़ाली हूँ,
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ,
कल जेल अगर हो जाए तो दिलवा देना तुम बेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो,
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो,
तुम चित्र-हार का मधुर गीत, मैं कृषि-दर्शन की झाड़ी हूँ,
तुम विश्व-सुंदरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाड़ी हूँ,
तुम सोने का मोबाइल हो, मैं टेलीफ़ोन वाला हूँ चोँगा,
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा,
दस मंज़िल से गिर जाऊँगा, मत आगे मुझे धकेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,

तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ,
तुम हो ममता-जयललिता जैसी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ,
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फॉलो-ओन की पारी हूँ,
तुम getz, matiz, corolla हो मैं Leyland की लॉरी हूँ,
मुझको रेफ़री ही रेहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं सोच रहा की रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये,

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये...

शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही!

यूँ भी नहीं कि उदू से अदावत नहीं रही,
हाथों में लड़ने-भिड़ने की ताकत नहीं रही,

थाने कि एक पिटाई ने सन्जीदा कर दिया,
जलवों से छेड़छाड़ की आदत नहीं रही,

हमको वतन से दूर किया रोज़गार ने,
दामने-यार से कोई निस्बत नहीं रही,

पानी नहीं है घर में कई दिन से ऐ खुदा,
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही,

मजबूर कर दिया है गरीबी ने इस क़दर,
सिगरेट-ओ-पान की कोई आदत नहीं रही,

होते हैं सामयीन तो मुश्किल से दस्तयाब,
पर शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही,

ऊल्लू हमारे पहले से सीधे हैं "माहताब" ,
ऊल्लू को सीधा करने की ज़हमत नहीं रही...

Thursday 4 September 2008

गर्दिश-ए-अय्याम....

ये शे'र विजयशंकर चतुर्वेदी जी के एक पोस्ट से प्रेरित हैं, पर उनके स्कूल आँफ़ थाट्स से सरोकार रखने वाले लोग इसके रिक्त स्थानों की पूर्ति ना करें :) । बाकी सब लोग कोशिश कर सकते हैं-

हर सुबह, हर शाम की माँ ____ के रख दी,
तुमने तो गर्दिश-ए-अय्याम की माँ ____के रख दी,
ठर्रा भी पिलाया मुझे व्हिस्की भी पिलाई,
साकी ने तो मेरे जाम की माँ ____ के रख दी...

खुली छोड़ देते हैं .........

एक मित्र द्वारा भेजी गई रचना प्रेषित कर रहा हूँ । पता नहीं किस की लिखी हुई है ।

वैधानिक चेतावनी : अनुरोध है कि इस कविता को मेरी सम्पूर्ण नारी जाति के प्रति भावनाओं से न जोड़ा जाये ।
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एक शराबी भैंस से टकरा के बोला हम ये बोतल तोड़ देते हैं
बहन जी मुआफ करना हम यह पीना पिलाना छोढ़ देते हैं
और फ़िर एक मोटी सी औरत से टकरा के गुर्रा के बोला
यह साले बाँध कर नहीं रख्ते अपनी भैंसें खुली छोढ़ देते हैं
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Tuesday 2 September 2008

बेसिरपैर के शे'र

पेश हैं दुष्यन्त कुमार के चंद बेसिरपैर वाले शे'र, जो कहते हैं कि उन्होंने उज्जैन में होने वाले किसी कवि सम्मेलन में सुनाए थे. चौथे शे'र में इंगित "सुमन" कौन हैं, मुझे नहीं मालूम. अगर आपको मालूम हो तो ज़रूर बताएँ-

याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन,
आप रुकिये फ़ाइलों में देखकर आता हूँ मैं,

इनका चेहरा है कि हुक्का है कि गोबर गणेश,
किस क़दर संजीदगी,यह सबको समझाता हूँ मैं,

उस नई कविता पर मरती ही नहीं हैं लड़कियां,
इसलिये इस अखाड़े में नित गज़ल गाता हूँ मैं,

ये "सुमन" उज्जैन का है इसमें खुश्बू तक नहीं,
दिल फ़िदा है इसकी बदबू पर क़सम खाता हूँ मैं,

इससे ज़्यादा फितरती इससे हरामी आदमी,
हो न हो दुनिया में पर उज्जैन में पाता हूँ मैं...

Monday 1 September 2008

वो बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है!

(1)
हज अदा करने गया कौम का लीडर,
संगबारी के लिये शैतान् तक जाना पड़ा,
एक कंकड़ फेंकने पर ये सदा आई उसे,
तुम तो अपने आदमी थे तुमको आखिर क्या हुआ?

(2)
पीटा है तेरे बाप ने कुछ इस तरंग से,
टीसें सी उठ रही हैं मेरे अंग अंग से,
फ़रियाद करने पे मेरे कुछ इस तरह कहा,
गिरते हैं शह-सवार ही मैदान-ए-जंग में!

(3)
इंडस्ट्रियाँ सारी मेरे यार खा गये,
मेरी सारी जायदाद रिश्तेदार खा गये,
मेरे मरने के बाद भी की उन्होंने बेईमानी,
बनाई मज़ार तो मीनार खा गये!

(4)
कब से परदेस में हैं घर की नहीं ली सुध भी,
एक बच्चे की खबर आज भी यार आई है,
उनको परदेस में क़ुदरत ने ये बख्शी इज़्ज़त,
वो बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है!