Saturday, 6 September 2008

शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही!

यूँ भी नहीं कि उदू से अदावत नहीं रही,
हाथों में लड़ने-भिड़ने की ताकत नहीं रही,

थाने कि एक पिटाई ने सन्जीदा कर दिया,
जलवों से छेड़छाड़ की आदत नहीं रही,

हमको वतन से दूर किया रोज़गार ने,
दामने-यार से कोई निस्बत नहीं रही,

पानी नहीं है घर में कई दिन से ऐ खुदा,
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही,

मजबूर कर दिया है गरीबी ने इस क़दर,
सिगरेट-ओ-पान की कोई आदत नहीं रही,

होते हैं सामयीन तो मुश्किल से दस्तयाब,
पर शायरों की शहर में किल्लत नहीं रही,

ऊल्लू हमारे पहले से सीधे हैं "माहताब" ,
ऊल्लू को सीधा करने की ज़हमत नहीं रही...

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

अरे भाई बडी दुखी आत्मा लगती हे,
इतना कुछ होने पर भी...
शॆर कहने की आदत नही गई
धन्यवाद