Monday 8 October 2007

बहुत पुरानी सायरी







मेरे अति प्रिय फिल्मकार मित्र राजीव (जिनके ज्ञान की मैं बहुत कद्र करता हूँ), अक्सर ये चार लैना सुनाते हैं. हर बार वे यह भी पूछते हैं कि मुसाफिर हंसता क्यों है। आपको पता हो तो बतायें, गरीब का भला हो जाएगा।


घंटाघर की चार घड़ी
चारों में ज़ंजीर पड़ी,
जब भी घंटा बजता था
खड़ा मुसाफिर हंसता था।

2 comments:

इरफ़ान said...

कमाल है.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

इसमें क्या है? ऐं?? ये लो डिकोड कर दिया-

एक मिनट ज़रा बीड़ी जला लूँ. ...बीड़ी जलैले गुर्दे से पीया! पीईया!!
अमाँ लुघटिया बुझ गयी. . ख़ैर, हाँ तो क्या फ़रमाया था आपने?

बाहर हाल

कमबख्त सब बीड़ी की गलती है. अब हेमा मालिनी छाप बीड़ी भी तो नहीं बनती!