Thursday 11 October 2007

आज के वास्ते जमीलुद्दीन आली का एक आखिरी दोहा

आज भी रोये कोयल बानी, कव्वे मारें तान
आज भी वीर खुले सीने और भांड चलायें बान।


* १९२६ में जन्मे जमीलुद्दीन आली पाकिस्तान के विख्यात कवि हैं। आली ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी से एक दफा चुनाव भी लड़ा था। अलबत्ता उस में वे हार गए थे। एक बेहतरीन गद्यकार के रुप में भी वे काफी नाम कमा चुके हैं और धारदार राजनैतिक व्यंग्य के लिए पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय भी हैं। करीब बीस साल पहले गुलाम अली ने उनकी एक ग़ज़ल गाई थी। तभी मुझे ये दोहे नैनीताल में मेरे परम आदरणीय उस्तादों में एक स्वर्गीय अवस्थी मास्साब ने सुनाये थे। मास्साब को गुलाम अली की गाई उस ग़ज़ल का मतला बहुत पसंद था:

"फिर उस से मिले जिस की खातिर बदनाम हुए, बदनाम हुए।
थे खास बहुत अब तक 'आली' अब आम हुए, अब आम हुए."

1 comment:

चंद्रभूषण said...

प्यारे भाई, आली जैसे जीनियसों के बगल में बैठना बेअदबी लगता है, फिर भी उनकी जूतियां झाड़ने की तर्ज में कभी-कभी मैं भी सस्ते शेर कहना चाहूंगा। अर्ज है-

साथ में खिलाओगे तो खिल जाऊंगा
किनारे ठेलोगे तो ठिल जाऊंगा
और यूं ही झेलाते रहेगे अगर मुझको
तो क्या करूंगा? अजी करूंगा क्या-
झिलते-झिलते एक दिन झिल जाऊंगा