Wednesday 10 October 2007

अब कलम से इजारबंद ही डाल (' सहाफी से')


(कुछ दिन पहले मैंने अपनी कमजोर पड़ रही याददाश्त से इस नज़्म की दो गलतसलत पंक्तियां लिख दीं थीं सस्ता शेर पर। तब से बेचैन था। कल दिन भर सारा घर छान मारा और अपने कबाड़ से ये नज़्म वाली 'पहल' खोज डाली। ज्ञान जी और उर्दू से हिंदी में लिप्यान्तरण करने वाली परवीन खान को आभार के साथ साथियों के लिए पेश है पूरी नज़्म।)

हबीब जालिब की नज़्म

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको राज़ाअत पसंद कह के ताल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल


*सहाफी : पत्रकार

2 comments:

इरफ़ान said...

अब धीरे धीरे हम सस्तेपन की नयी मंज़िलें तय करेंगे. आपकी मेहनत रंग ला रही है.
बधाई हो.

Reyaz-ul-haque said...

शुक्रिया भाई...
अच्छी नज़्म है.