Wednesday 17 December 2008

बुढ़ापे की ग़ज़ल!!

ऐसा नहीं के उनसे मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहले सी शिद्दत नहीं रही

सर में वो इन्तज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धड़कनों की हुकूमत नहीं रही

पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-जाना के दिन गये
पैरों में चलने फिरने की ताक़त नहीं रही

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया
जलवों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही

चेहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही

अल्लाह जाने मौत कहां मर गई 'ख़ुमार'
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही

-- ख़ुमार बाराबंक्वी

4 comments:

नीरज गोस्वामी said...

चेहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही
दाद एक क्या हज़ार लें...क्या ग़ज़ल कही है उस्ताद ने वाह...
नीरज

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

bahut badhiya. majaa aa gaya.

एस. बी. सिंह said...

हालात बुढापे के हम पढ़के यूं डरे
के दाद भी देने की हिम्मत नहीं रही।

अवनीश एस तिवारी said...

बहुत अच्छा लिखा है |
बधाई|

यह शेर बहुत भाया -
चेहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही


अवनीश तिवारी