Tuesday 5 May 2009

मैं मर भी न पाऊँगा अब ज़हर खाके...

मैं गाता हूँ जब मूड अपना बना के,
गधे रेंकते हैं मेरे घर में आ के,

मेरी नौकरी जब से छूटी है तब से,
निकलते हैं सब यार बटुआ छुपा के, 

हुई बंद बनिये की भी अब उधारी,
मैं मर भी न पाऊँगा अब ज़हर खाके,

मैं कड़का सही तुम मेरे घर तो आओ,
खिलाऊँगा तुमको मैं मुर्गा चुरा के,

मुझे क्या खबर थी कि जूते पड़ेंगे, 
मुझे ले गये अपने घर वो पटा के, 

मुझे तेरे पापा से शिकवा नहीं है, 
कि पीटा उन्होंने तो खाना खिला के, 

बचा बज़्म में कोई सामीं न 'सस्ते',
मैं फ़ारिग हुआ जब गज़ल अपनी सुनाके....

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

marhaba! bach ke raina re baba ! bach ke raina re!