Monday 15 June 2009

आशिक का जनाज़ा उर्फ़ महबूबा की राहत






द जनाज़ा ऑफ़ महबूब निकला फ्रॉम
द गली ऑफ़ महबूबा विथ लोट्स ऑफ़ जोर
शोर सुनकर महबूबा झांकी फ्रॉम द डोर
एंड बोली- 'आखिर मर ही गया हरामखोर'.

5 comments:

ओम आर्य said...

बहुत ही अनोखा प्रयोग ......बहुत खुब

अनूप भार्गव said...

लेकिन भैया आप काहे मचा रहे हैं इतना शोर
सुनने वाले कह तो रहे हैं वन्स मोर वन्स मोर ....

मुनीश ( munish ) said...

ye swat ghati ka kissa hai kya !

Anonymous said...

जनाबेआली!
आपका यह शेर पढ़कर बचपन का एक शेर याअ आ रहा है, जो हम तीसरी कक्षा में अपनी जानेमन को देखकर गुनगुनाया करते थे। शायद किसी ट्रक के पीछे लिखा पढ़ा था यह हमने।

तू अब मुझे छोड़ कर चली जाएगी
मेरी नहीं किसी और की बाहों में समा जाएगी
मैं तो पनघट तक ही आया था तेरे पीछे
तू तो मरघट पर भी आएगी

अनिल जनविजय

Shailendra said...

अनिल जी तीसरी कक्षा में आपकी उम्र क्या रही होगी ? यह शेर देख कर कुछ शक सा हुआ .:)