Wednesday 17 June 2009

घर के बुद्धू लौट के घर को आजा

बहुत दिनों से इस गली में आना ही नहीं हुआ । आज बहुत दिनों बाद आया हूं और एक कुंडलिनी टाइप की रचना पेल रहा हूं । कुडलिनी की विशेषता ये होती है कि जिस शब्‍द से शुरू होती है उसी पर समाप्‍त होती है ।

माही जी की ना गली टी ट्वन्‍टी में दाल

फिर भी हैं बेशर्म ये गेंडे सी है खाल

गेंडे सी है खाल, भाये पैसे की खन खन

किरकिट खेले बिन भी मिलते हैं विज्ञापन

कह 'धोंधू' कविराय, हो चुकी खूब उगाही

घर के बुद्धू लौट के घर को आजा माही

8 comments:

निर्मला कपिला said...

सुबीर जी मेरे लिये तो हर शेर महंगा है क्यों की मुझे शेर से डर् लगता है मतलवेअश अर कहने मे आपकी प्रस्तुती अच्छी लगी आभार्

ओम आर्य said...

सुन्दर प्रस्तुति ........काबिले तारिफ

नीरज गोस्वामी said...

जय हो गुरु देव...काका हाथरसी याद आ गए और याद आगई गिरधर की कुण्डलियाँ....
नीरज

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

कुण्डलिनी तो योगियों द्वारा साधी जाती है बंधु, यहाँ आपने अच्छी कुण्डली साधी है. सस्तापन जिंदाबाद!

अनूप भार्गव said...

बढिया है ...

Unknown said...

ha ha ha ha
zor zor se HA HA HA HA HA HA HA HA
adbhut kaam kar diya kundli me
badhaai !

मुनीश ( munish ) said...

mast hai zabardast hai !

Shailendra said...

अमा अब इतना भी क्या ! कुछ ज्यादा नहीं हो गया ? यह तो 20% से भी ज्यादा है.