आपने कभी खड़ी हुई ग़ज़ल देखी है । यक़ीनन नहीं देखी होगी हुई ही नहीं तो आप देखेंगें कहां से दरअस्ल में तो गज़ल या तो बैठी हुई होती है ( मयखाने में ) या फिर लेटी हुई होती है ( उनकी ज़ुल्फों की घनेरी छांव में ) । ये पहला प्रयोग किया जा रहा है कि ग़ज़ल को खड़ा किया जा रहा है अपने पांवों पर । ग़ज़ल को खड़ा करने के पीछे शायर का क्या मकसद है ये तो उसको खुद को भी नहीं पता पर फिर भी लिखी है तो सुन लो ।
इधर हम खड़े थे, उधर वो खड़े थे
उधर वो खड़े, हम इधर को खड़े थे
खड़े थे इधर हम, खड़े थे उधर वो
खड़े वो उधर, हम इधर जो खड़े थे
न पूछो ये हमसे खड़े थे किधर हम
खड़े तुम उधर, हम इधर तो खड़े थे
बड़ी राह देखी तुम्हारी यहां पर
उधर तुम थे और हम इधर लो खड़े थे
भले तख्ती कर लो बहर में मिलेगा
के दोनों मिलाकर के दुइ ठो खड़े थे
चलो सुन लो मकता ख़तम खेल हो ये
वहां कुल मिलाकर के हम दो खड़े थे
5 comments:
दुनिया के लोग जाने कब से खड़े थे
देखा देखी हम भी तो तब से खड़े थे
बढ़िया खड़ी की खड़ी ग़ज़ल है. अब किसी दिन बैठी, लेटी, ऊंघती भी हो जाए...
खड़े हो अड़े हो कहाँ तुम पड़े हो
पड़े हो ये सोचो हो हम तो खड़े थे
हमें माफ़ करना हैं नादाँ निरे हम
थे जब हम भी दाना, हदों में खड़े थे
marhaba!qurbaan!!
kya baat hai bahut khub,khade khade gazal padhihumne.
खड़ी इक गजल के खड़े शेर पढ़ के
खड़े हो गए वो, जो जिद पर अड़े थे
खड़े होकर जैसे ही नीचे कू देखा
गजल के वो टुकड़े जमी पर पड़े थे
Post a Comment