Sunday 1 June 2008

मैंने कब तारीफ़ें की हैं, उनके बांके नैंनों की

सस्ता है या महंगा, साहेबान तय कर लें. अहमद नदीम क़ासमी साहब ने यूं भी फ़रमाया है एक जगह:

देख री, तू पनघट पै जाके मेरा ज़िक्र न छेड़ा कर
क्या मैं जानूं, कैसे हैं वो, किस कूचे में रहते हैं
मैंने कब तारीफ़ें की हैं, उनके बांके नैंनों की
"वो अच्छे ख़ुशपोश जवां हैं" मेरे भय्या कहते हैं

3 comments:

इरफ़ान said...

भई वाह! आपने चुप्पी तोडी और भी शानदार ढंग से, लुफ़्त ही आ गया. गंध कितनी भी फैलाएँ वो लोग, हमें क्या काम दुनिया से..हमें श्रीकृष्ण प्यारा है.

दीपक said...

चलिये इस रात कि सुबह तो हुई !!जै हो आधे शेर वाले कि आज तो पुरा का पुरा शेर उडा दिया !!

अनूप भार्गव said...

बढिया है ......