आज के मरदूद ज़माने में जहां नॉन-वेजीटेरियन भोजन महंगा होने के बावजूद खूब भकोसा और पसंद किया जाता है, दारू की दावतें नॉन-वेजीटेरियन भोजन के बिना "घासपात" दावत कहलाई जाती हैं, और नॉन-वेजीटेरियन लतीफ़े सुनाने वाले और बात करने वाले पुरुष और महिला क्रमशः स्मार्ट तथा मॉडर्न माने जाते हों, वेजीटेरियन की बातें करने का रिस्क उठा रहा हूं. पेश करता हूं एक टोटल वेजीटेरियन शायरी जो श्वानप्रेमी मानेखां गांधीं को कद्दुओं के ठेले समेत कद्दू पर ही समर्पित की जा रही है:
तू टिंडा है तू भिन्डियों की जीत पर यक़ीन कर
कहीं दिखे जो मुर्ग़ तो तू गाड़ आ ज़मीन पर.
... इस के आगे कोरस
(पोस्ट का टाइटिल एक ख़ास सस्ते मकसद से गलत लिखा गया है. क्योंकि सनसनी फैलाने का कॉपीराइट केवल महंगों के पास ही नहीं होता. एक रिक्वेस्ट: इस गीत को आगे ले जाने और पूरा करने की यात्रा में भाजीदार बनें)
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