
ऐसा तो ब्लौग यारों ना मिलेगा कहीं ढूंढें से भी जहन्नुम में
बडे बडे उस्ताद जहाँ करते हैं शायरी चूतिया सी तरन्नुम में!!
महंगाई के दौर में एक राहत की सांस
आपने मेरी खड़ी खड़ाई ग़ज़ल को पसंद किया उसके लिये पार्टी आपका शुक्रिया अदा करती है और विश्वास दिलाती है रवि रतलामी जी को कि सभी प्रकार की वे ग़ज़लें उनको सुनने को मिलेंगीं जो वे चाहते हैं
अर्ज़ किया है
बाप को उनके बनाते मूर्ख हम चुपचाप से
और माशूका के भाई के भी बचते ताप से
या ख़ुदा तूने हमें भेंगा बनाया क्यों नहीं
देखते महबूब को और बात करते बाप से
अशोक जी ने लिखा है कि नशा दाने दाने को मोहताज कर देता है ये उन्होंने एक ट्रक पर से पढ़ा है । अब ये तो उन्होंने नहीं बताया कि वे ट्रक के पीछे क्या कर रहेथे । खैर मैं जवाब दे रहा हूं और हां एक बात पहले ही बात देता हूं कि भले ही सस्ता शेर पर वैधानिक चेतावनी लगी है कि शेर जरूरी नहीं हैं कि लिखने वाले के ही हों पर मैं तो अपने और केवल अपने ही ताज़ा लिखें पेश कर रहा हूं सो चुराने की कोशिश करने पर कापीराइट लग जाएगा ( वैसे हिन्दुस्तान में कापीराइट चलता ही कितना है )
न दे गर कोई खाने को नहीं दाना भी दे कोई
मगर पीने को तो देगा भला मानुस अगर होगा
आपने कभी खड़ी हुई ग़ज़ल देखी है । यक़ीनन नहीं देखी होगी हुई ही नहीं तो आप देखेंगें कहां से दरअस्ल में तो गज़ल या तो बैठी हुई होती है ( मयखाने में ) या फिर लेटी हुई होती है ( उनकी ज़ुल्फों की घनेरी छांव में ) । ये पहला प्रयोग किया जा रहा है कि ग़ज़ल को खड़ा किया जा रहा है अपने पांवों पर । ग़ज़ल को खड़ा करने के पीछे शायर का क्या मकसद है ये तो उसको खुद को भी नहीं पता पर फिर भी लिखी है तो सुन लो ।
इधर हम खड़े थे, उधर वो खड़े थे
उधर वो खड़े, हम इधर को खड़े थे
खड़े थे इधर हम, खड़े थे उधर वो
खड़े वो उधर, हम इधर जो खड़े थे
न पूछो ये हमसे खड़े थे किधर हम
खड़े तुम उधर, हम इधर तो खड़े थे
बड़ी राह देखी तुम्हारी यहां पर
उधर तुम थे और हम इधर लो खड़े थे
भले तख्ती कर लो बहर में मिलेगा
के दोनों मिलाकर के दुइ ठो खड़े थे
चलो सुन लो मकता ख़तम खेल हो ये
वहां कुल मिलाकर के हम दो खड़े थे
हमें हर वक़्त लगता था हमें वे देखती हेंगी
अगर यूं देखती हैं तो यक़ीनन दिल भी वो देंगी
मगर कमबख़्त कि़स्मत को कहां पर रोइये जाकर
ग़लतफ़हमी हमारी थी उधर तो आंख थी भेंगी