Friday, 20 June 2008

चंद शब्द चुनकर लाया हूँ

सस्ते शेर के सस्ते श्रोताओं को एक सस्ता सा सलाम, इस कलाम की कहानी कुछ वैसी ही है जैसी 'तिल बना रहे थे, स्याही फैल गयी' की। मुलाहयजा फरमायें -

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
चंद शब्द चुनके लाया था, जाने कहाँ वो हो गये गुम।

कोई आंखों पे गुनगुनाता है, कोई मंदिर में जा सुनाता है
'तरूण' ये सुखनवरों की बस्ती है, यहाँ हर शब्द दिल को भाता है।

चलो तुम मीर बन जाओ, गालिब का तख्ल्लुस मैं ले लूँ
शब्दों के फूल तुम चुनो, और मैं उन से माला बुन लूँ।

ऊपर की इन लाईनों को आज छापने से पहले थोड़ा दुरस्त किया गया है, वैसे ये कई हफ्तों से किसी लावारिस पेपर में लिखी घर के किसी कोने में पड़ी थी, आज नजर गयी तो जैसे इनको भी इनका खोया चांद मिल गया। दुरस्त करने से पहले का ड्राफ्ट वर्जन कुछ ऐसे था -

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
बहुतों ने करी कोशिश, सीधी ना कर पाये कुत्ते की दुम।

कोई आंखों पे गुनगुनाता है, कोई मंदिर में जा सुनाता है
'तरूण' ये सुखनवरों की बस्ती है, आ तू भी अपना आशियाँ यहाँ बुन।

चलो तुम मीर बन जाओ, गालिब का तख्ल्लुस मैं ले लूँ
सस्ते शेरों की ये दुनिया सही, यहाँ शायर कभी नही होते गुम।

6 comments:

इरफ़ान said...

कृपया खोया-पाया कार्यालय से सतत संपर्क रखें.

Prabhakar Pandey said...

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
चंद शब्द चुनके लाया था, जाने कहाँ वो हो गये गुम।

वाह-वाह-वाह।

दीपक said...

पर जो सीधा ना हो वही कुत्ते की दुम ॥

वाह वाह क्या शेर मारा है !!

Anonymous said...

शेर तुम, गजल तुम, गीत और कविता भी तुम
चंद शब्द चुनके लाया था, जाने कहाँ वो हो गये गुम। bhut khub likhate rhe.

अनूप भार्गव said...

कहना मुश्किल है कि दुरुस्त करने से पहले का वर्ज़न अच्छा था या बाद का । :-)

मंज़र भोपाली साहब का मशहूर शेर याद आ रहा है :
कह दो मीर-ओ-गालिब से हम भी शेर कहते हैं
वो सदी तुम्हारी थी, ये सदी हमारी है ।

pallavi trivedi said...

चलो तुम मीर बन जाओ, गालिब का तख्ल्लुस मैं ले लूँ
शब्दों के फूल तुम चुनो, और मैं उन से माला बुन लूँ।
waah...waise durusti ke baad wale sher bhi khoob hain.