Thursday 24 July 2008

रितेश की एक सस्ती ग़ज़ल

जो मिले उल्लू बनाते जाइये,
गुलों के भी गुल खिलाते जाइये,
शर्म की चादर उतारें,फेंक दें,
खूब गुलछर्रे उड़ाते जाइये,
शान से चाँदी का जूता मार कर,
काम सब अपने बनाते जाइये,
गर्ज़ हो तो बाप गधे को कहें,
अन्यथा आँखें दिखाते जाइये,
झाँकिये मत खुद गिरेबाँ में कभी,
गैर पर उँगली उठाते जाइये,
दिन नहीं बीड़ा उठाने के रहे,
शौक़ से बीड़ा चबाते जाइये...

4 comments:

राज भाटिय़ा said...

बाप रे क्या यह केसी पटी पढा रहे हे बर्खुरदार,कही संसद के ई...म...न..द..अ...र..ओ की बात तो नही कर रहे जनाब,

ऋतेश त्रिपाठी said...

अरे भैया ई गज़ल हम खाली पढे थे, लिखे थोड़ी न थे...फिर ई हमारी गज़ल कैसे हुई?

Ashok Pande said...

बढ़िया सस्ती रचना.

दीपक said...

हमका तो ये रचना दिल्ली के नालायको के लिये बनायी हुयी लग रही है क्या ड्रामा है भई पहले सांसद बनाओ फ़िर रचना बनाओ !!