Friday 18 July 2008

अहमद फ़राज़ को श्रद्धांजलि


खिचड़ी ही सही कुछ तो पकाने के लिये आ,
आ तू ही मेरी दाल गलाने के लिये आ,
पहनी थी जिसमें कभी मैनें ही अंगूठी,
आ मुझको उसी उँगली पे नचाने के लिये आ,
तू भी तो कभी देख मेरे हाथों का जादू,
तू भी तो कभी मुझसे खुजाने के लिये आ,
रो रो के तेरी याद में टब भर दिये मैनें,
ऐ क़ह्त ज़दा अब तो नहाने के लिये आ...

12 comments:

Ashok Pande said...

इरफ़ान भाई,

कई साल पहले इस के मतले का यूं कीमा बनाया गया था :

पच्चीस ही सही, पव्वा तो पिलाने के लिए आ
आ फिर मुझे तू टुन्न बनाने के लिए आ

आज आपने पूरी ग़ज़ल कह डाली और वो भी मीट्रिक टन में.

साधु! साधु!!

अनूप भार्गव said...

और चलते चलते ’मकता’ भी हो जाये :

गालिब औ फ़राज़ को अब कौन पढे है
सस्ता सा कोई शेर सुनाने के लिये आ

परमजीत सिहँ बाली said...

आनंद आ गया। बहुत बढिया!!

siddheshwar singh said...

changaa ji,
bidaaoot pangaa ji!

Bandmru said...

isko bi dekhiye...
Ruth gayi jindgi ek pal men un hi.
sapno men sirf muskurane ke liye aa.

bahut khub lajwab.........

sanjay patel said...

इरफ़ान के सदक़े हैं क्या लिख गया फ़राज़
जाने का सबब छोड आने के लिये आ

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अरे साहब आप तो सस्ते शेर के
बहाने पाठकों को आसानी से
ऊँगलियों पे नचा लेते हैं.
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डा.चन्द्रकुमार जैन

दीपक said...

लिजिये आ गये !! हा हा हा

राज भाटिय़ा said...

गीत नही तो गाली ही सुनाने के लिये आ,
बाप नही तो कम्ब्खत भाईयो से पिट्वाने के लिये आ.

شہروز said...

भाई, मुबारकबाद.
बहुत अच्छा लगा ब्लॉग देखकर.
इरफान भी वाह!
आ फिर मेरे टब में नहाने के लिए आ

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत खूब. पर ये बताइये इतने पर भी आई की नहीं?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

टखनों का मरहम समझ बैठे थे तुझको
आ तू ही मेरी खाज बढ़ाने के लिए आ.