खिचड़ी ही सही कुछ तो पकाने के लिये आ,
आ तू ही मेरी दाल गलाने के लिये आ,
आ तू ही मेरी दाल गलाने के लिये आ,
पहनी थी जिसमें कभी मैनें ही अंगूठी,
आ मुझको उसी उँगली पे नचाने के लिये आ,
आ मुझको उसी उँगली पे नचाने के लिये आ,
तू भी तो कभी देख मेरे हाथों का जादू,
तू भी तो कभी मुझसे खुजाने के लिये आ,
तू भी तो कभी मुझसे खुजाने के लिये आ,
रो रो के तेरी याद में टब भर दिये मैनें,
ऐ क़ह्त ज़दा अब तो नहाने के लिये आ...
ऐ क़ह्त ज़दा अब तो नहाने के लिये आ...
12 comments:
इरफ़ान भाई,
कई साल पहले इस के मतले का यूं कीमा बनाया गया था :
पच्चीस ही सही, पव्वा तो पिलाने के लिए आ
आ फिर मुझे तू टुन्न बनाने के लिए आ
आज आपने पूरी ग़ज़ल कह डाली और वो भी मीट्रिक टन में.
साधु! साधु!!
और चलते चलते ’मकता’ भी हो जाये :
गालिब औ फ़राज़ को अब कौन पढे है
सस्ता सा कोई शेर सुनाने के लिये आ
आनंद आ गया। बहुत बढिया!!
changaa ji,
bidaaoot pangaa ji!
isko bi dekhiye...
Ruth gayi jindgi ek pal men un hi.
sapno men sirf muskurane ke liye aa.
bahut khub lajwab.........
इरफ़ान के सदक़े हैं क्या लिख गया फ़राज़
जाने का सबब छोड आने के लिये आ
अरे साहब आप तो सस्ते शेर के
बहाने पाठकों को आसानी से
ऊँगलियों पे नचा लेते हैं.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
लिजिये आ गये !! हा हा हा
गीत नही तो गाली ही सुनाने के लिये आ,
बाप नही तो कम्ब्खत भाईयो से पिट्वाने के लिये आ.
भाई, मुबारकबाद.
बहुत अच्छा लगा ब्लॉग देखकर.
इरफान भी वाह!
आ फिर मेरे टब में नहाने के लिए आ
बहुत खूब. पर ये बताइये इतने पर भी आई की नहीं?
टखनों का मरहम समझ बैठे थे तुझको
आ तू ही मेरी खाज बढ़ाने के लिए आ.
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