Saturday, 30 August 2008

हप्ते का हिसाब

आज सनीचर है
तो
कल इतवार होगा,
कल इतवार है

तो परसों सोमवार होगा.

( सप्ताह के बाकी दिनों का हिसाब,
खुद ही समझ लें जनाब !
ऊपर लिखा 'सेर' जमे तो चंगा,
नहीं तो काहे मुफ़्त का पंगा !! )

Tuesday, 26 August 2008

हर अदा उसकी...




हर अदा उसकी हरेक बात बुरी लगती है,
ब्याह हो जाये तो ये ज़ात बुरी लगती है,

ऐसे में तज़ुर्बे से गुज़रा हूँ यारों कि मुझे,
हर निकलती हुई बारात बुरी लगती है,

जब कहीं बन-सँवर के जाने लगूँ,
मुझसे करती है सवालात बुरी लगती है,

सख्त गर्मी में भी नहाने के लिये,
देने पड़ते हैं वज़्हात, बुरी लगती है,

कहाँ छूने की तमन्ना थी और अब ये आलम,
जब लगाती है मुझको हाथ बुरी लगती है...

Saturday, 23 August 2008

इश्क़ की मार....



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इश्क़ की मार क्या करें साहिब,
दिल है बीमार क्या करें साहिब,

एक लैला थी एक मजनू था,
अब है भरमार क्या करें साहिब,

जिस ने चाहा उसी ने लूट लिया,
हम थे हक़दार क्या करें साहिब,

उनको मेक-अप ने डुप्लीकेट किया,
ऐसा सिंगार क्या करें साहिब,

पेट तो भूख से परेशान है,
रंग-ओ-गुल्नार क्या करें साहिब,

जिनसे है प्यार की उम्मीद हमें,
वो हैं खूंखार क्या करें साहिब...

Wednesday, 20 August 2008

दुष्यन्त कुमार की सस्ती गज़लें...

हिन्दी गज़लों के माई-बाप कहे जाने वाले श्री दुष्यन्त कुमार ने धर्मयुग के संपादक अपने मित्र धर्मवीर भारती के नाम ये सस्ती गज़लें लिखी थीं, पता नहीं धर्मवीर जी तक ये पहुँचीं थीं या नहीं। देखिये...


पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर,
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर,

अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर,

कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर,

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर,

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुज़ूर॥


उपरोक्त गज़ल का संभावित उत्तर, दुष्यन्त जी के ही शब्दों में-

जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर,
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर,

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर,

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर,

पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर,

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर...

Tuesday, 19 August 2008

तेरी गली में....

ये संदेश उन सब के नाम जो अब तक नहीं पटीं,और आगे पटने की संभावना भी नगण्य है :-)

इतने पड़े डंडे अबकी तेरी गली में,
अरमाँ हो गये सब ठंडे तेरी गली में,

हाथ में कंघी है,ज़ुल्फ़ें सँवारते हैं,
गड़ेंगे आशिक़ी के झंडे तेरी गली में,

अब क्या बताएँ ज़ालिम कैसे गुज़रते हैं,
संडे तेरी गली में, मंडे तेरी गली में,

हम ढूंढ लेंगे कोई दीदार का बहाना,
हम बेचा करेंगे अंडे तेरी गली में...

Wednesday, 13 August 2008

शोभना चौरे की शायरी: नमूने देखें

दोस्तो ये जमाना क्या हो गया है,
जिसे चाहा वो बेवफा हो गया है|

तुम्हारे लिए तुम्हे ही छोड़ दिया है,
सिर्फ़ अल्फाजो से क्या होता है,
मेने अपने ज़ज्बतो को भी छोड़ दिया है|


सवालो के जंगल मे घूमते हुए
जिंदगी खो देते हम,
जवाबो की चाहत मे शातिर हो बैठे हम

ये कहना आसान है,
बंदे मासूम है आप
इस मासूमियत मे,
अपनी काबिलियत गवा बैठे हम|

Tuesday, 12 August 2008

आँखें...


अहद का इक ज़वाल हैं आँखें,
कितनी केहतोर-रिजाल हैं आँखें,
एक से दूसरी नहीं मिलती,
भैंगेपन का कमाल हैं आँखें,
देखते ही रगड़ दिया दिल को,
आप की रेग-माल हैं आँखें,
दुश्मनों को निहाल करती हैं,
मेरे हक़ में वबाल हैं आँखें,
302 भी इन पे लगता है,
कितनी ज़ालिम निढाल हैं आँखें,
डालर-ओ-पाउन्ड इन को भाते हैं,
शैख जी का रियाल हैं आँखें,
तुम कभी इनमें झाँक के देखो,
इक गहरी सी चाल हैं आँखें...

विनय शर्मा की एक सस्ती ग़ज़ल

शेर है मेरा सबसे सस्ता
है लेकिन ये एकदम खस्ता

इसकी ही है चर्चा हरसू
गली-गली औ' रस्ता-रस्ता

टूटा हैं यह कसता-कसता
उजड़ गया है बसता-बसता

उसकी किस्मत-मेरा क्या है
निकला है वो फँसता-फँसता

दुनिया क्यों है रोती रहती
जग है फ़ानी-जोगी हंसता

Friday, 8 August 2008

पेश हैं अनुराग शर्मा के भेजे दो अशआर .

पेश हैं अनुराग शर्मा के भेजे दो अशआर .
ूओओओओओओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओ



ओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओओओओओओओ

ओओओओओओओओओओओओओओओओओओ

उल्लू के पट्ठे, हुए हैं इकट्ठे
बिठाने चले हैं, अपने ही भट्टे



हम चमक गए, वो चमका गए
मजूरी ले गए, चूना भी लगा गए.

Thursday, 7 August 2008

आपमें से कितनों ने प्याज का हलवा खाया है?

शौहर से इंतहाई मुहब्बत की ये मिसाल देखें-

अध पकी खिचड़ी रखी है शौक़ फ़रमाऐंगे क्या?
तौबा खाली पेट ही दफ़्तर चले जाऐंगे क्या?

चाय में लहसन की बदबू आ गई तो क्या हुआ?
अल्लाह! माँ-बहन पर आप उतर आऐंगे क्या?

दूध में मक्खी ही थी चूहा तो न था ऐ हूज़ूर,
हाथ धो कर आप अब पीछे ही पड़ जाऐंगे क्या?

प्याज का हलवा बना दूँ ऐ ज़रा रुक जाइये,
भूखे रह कर आप मेरी नाक कटवाऐंगे क्या?

Tuesday, 5 August 2008

जिस शख्स को ऊपर से कमाई नहीं होती...

जिस शख्स को ऊपर से कमाई नहीं होती,
सोसाइटी उस की कभी हाई नहीं होती,

करती है वो उसी रोज़ शापिंग का तक़ाज़ा,
जिस रोज़ मेरी ज़ेब में पाई नहीं होती,

पुलिस करा लाती है हर चीज़ बरामद,
उस से भी के जिस ने चुराई नहीं होती,

मक्कारी-ओ-दगा आम है पर इस के अलावा,
सस्ते शायर में कोइ भी बुराई नहीं होती :)

ये शेर आज ही संस्‍कृति के चार अध्‍याय में पढ़ा अच्‍छा लगा सो आप भी सुनें

संस्‍कृति के चार अध्‍याय में वैसे तो काफी कविता है पर कुछ अच्‍छे शेर भी वहां पर हैं जो आनंद देते हैं गद्य के बीच में जब पद्य आता है तो उसका मजा ही अलग होता है और उस पर हम तो ठहरे कविता वाले लोग हम तो हर जगह कविता को ही ढूंढते हैं

तेरी बेइल्‍मी ने रख ली बेइल्‍मों की शान

आलिम-फाजिल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान

Saturday, 2 August 2008

मेरी दास्ताने-हसरत...

बुफ़े-दावत पे बुलाया गया हूँ,
प्लेटें दे के बहलाया गया हूँ,

न आई पर न आई मेरी बारी,
पुलाव तक बहुत आया-गया हूँ,

कबाब की रकाबी ढून्ढने को,
कई मीलों में दौड़ाया गया हूँ,

ज़ियाफ़त के बहाने दर-हक़ीक़त,
मशक़्क़त के लिये लाया गया हूँ...

Friday, 1 August 2008

नॉन-वेजीटेरियन शायरी

आज के मरदूद ज़माने में जहां नॉन-वेजीटेरियन भोजन महंगा होने के बावजूद खूब भकोसा और पसंद किया जाता है, दारू की दावतें नॉन-वेजीटेरियन भोजन के बिना "घासपात" दावत कहलाई जाती हैं, और नॉन-वेजीटेरियन लतीफ़े सुनाने वाले और बात करने वाले पुरुष और महिला क्रमशः स्मार्ट तथा मॉडर्न माने जाते हों, वेजीटेरियन की बातें करने का रिस्क उठा रहा हूं. पेश करता हूं एक टोटल वेजीटेरियन शायरी जो श्वानप्रेमी मानेखां गांधीं को कद्दुओं के ठेले समेत कद्दू पर ही समर्पित की जा रही है:

तू टिंडा है तू भिन्डियों की जीत पर यक़ीन कर
कहीं दिखे जो मुर्ग़ तो तू गाड़ आ ज़मीन पर.

... इस के आगे कोरस

(पोस्ट का टाइटिल एक ख़ास सस्ते मकसद से गलत लिखा गया है. क्योंकि सनसनी फैलाने का कॉपीराइट केवल महंगों के पास ही नहीं होता. एक रिक्वेस्ट: इस गीत को आगे ले जाने और पूरा करने की यात्रा में भाजीदार बनें)

अन्दाज़-ए-बयाँ कैसे कैसे...

कुछ रीपीट मार दिया हो तो माफ़ करें...

1. कौन कहता है प्यार में पकड़े जाएँगे,
वक़्त आने पर बहन-भाई बन जाएँगे!

2. मुहब्बत मुझे उन जवानों से है,
जो खाते-पीते घरानों से हैं......

3. दिल तो चाहा था तेरे नाज़ुक होठों को चूम लूँ,
पर तेरी बहती हुई नाक ने इरादा बदल दिया !

4. यूँ लड़कियों से दोस्ती अच्छी नहीं "फ़राज़",
बच्चा तेरा जवान है कुछ तो ख्याल कर !

5. लोग रात कहते हैं ज़ुल्फ़ों को तेरी,
तू सर मुँड़ा ले तो सवेरा हो जाये...

6. सुना है सनम के कमर ही नहीं,
खुदा जाने वो नाड़ा कहाँ बाँधते होंगे!

7. यूँ तो तुम्हारे हुस्न का हुक्का बुझ चुका है,
वो तो हम हैं कि मुसल्सल गुड़गुड़ाए जा रहे हैं।

8. मुझको ये नया ज़माना हैरत में डालता है,
जिसका गला दबाओ वो आँखें निकालता है !

9. लड़की वही जो लड़कियों में खेले,
वो क्या जो लौंडों में जाके दण्ड पेले!

और ये सियार-ए-आज़म-

10.हँसती थी हँसाती थी,
देखता था तो मुस्कराती थी,
रोज़ अदाओं से सताती थी,
एक अर्से बाद पता चला,
साली चूतिया बनाती थी!