पेशे-ख़िदमत है हुसैनी खांडवी साहब की एक गज़ल, जिसमें वो अपना और हमारे शादी-शुदा पाठकों का हाले-दिल बयाँ कर रहे हैं-
आज तक वो बैण्ड-बाजे शामियाना याद है,
खुद को इतनी धूम से सूली चढाना याद है,
तीन मौके भी दिये थे काज़ी ने गौर-ओ -फ़िक्र के,
आज तक वो कीमती मौके गँवाना याद है,
घर जिसे लाये थे हम रोटी पकाने के लिये,
अब पकाती है हमें उसका पकाना याद है,
ना सिलाई जानती है ना कुकिंग मालूम है,
हाँ उसे शौहर को उँगली पर नचाना याद है,
उसकी हर इक बात पर कहना ही पड़ता है "बज़ा"
इस तरह उसका हमें बरसों बजाना याद है
मानते हैं हम "हुसैनी" हादिसा होगा शदीद,
क्यों कि तुमको वाक़या इतना पुराना याद है
-हुसैनी खांडवी
1 comment:
वाह वाह क्या बात है! मौलाना हसरत मोहानी अपनी गजल की इस पैरौडी पर कब्र में पलटे खा रहे होंगे.
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