Monday, 13 October 2008

खट्टी कढी औ बैंगन बघारे...

दुआ करने गये किस्मत के मारे,
हुए मस्जिद से गुम जूते हमारे,

अमीरे-शहर की बेटी है कानी,
हुए दामाद के वारे-न्यारे,

वतन वापस आकर भी क्या मिला है,
वही खट्टी कढी औ बैंगन बघारे,

हर एक डरने लगा बीवी से अपनी,
मुक़द्दर किसके अब कौन सँवारे,

खुली जो आखँ तो कुछ भी नहीं था,
ना काज़ी, ना मैं, ना ही छुहारे...

4 comments:

महेंद्र मिश्र.... said...

bahut khoob anand aa gaya. likhate rahiye. dhanyawad.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

achcha swapn tha

PREETI BARTHWAL said...

वाह क्या बात है। बढ़िया ।

"अर्श" said...

to janab yaha time laga rahe hai isliye kahun ke usme koi ghazal post ku nahi ho rahi hai time pe ... wese ye bahot hi khub hai shandar....