Monday 31 December 2007

नया साल मुबारक

पुराना साल ये जा रहा है,नया साल वो आ रहा है ।
देखें कौन क्या पी रहा है ,और कौन क्या खा रहा है? ॥

ब्लॉगर बेचारा रात-रात भर,रात-रात भर जाग रहा है ,
उसे क्या खबर कौन क्या पी रहा है और क्या खा रहा है ।
(दद्दा इरफान! कुछ पता लगे तो बता दीजो
फिलहाल तो मेरे 'सेर ' पे ना खीजो .)

3 comments:

इरफ़ान said...

दद्दा! ये वो देश है जहाँ न खाने के लिये पानी है, न पीने को रोटी. नया साल फिर भी आयेगा क्योंकि पुराना जायेगा जो!

पंकज सुबीर said...

आप अच्‍छा कर रहे हैं हालंकि मैं जानता हूं कि आपको विरोध का सामना करना पड़ रह होगा । मैं आपके ये शेर नियमित पढ़ता हूं । मेरा मानना है कि आप अगर नाम सस्‍ता शेर की जगह कुछ और रख दें तो फिर अकबर इलाहबादी और चिरकिन जैसे शायरों का इस्‍तेमाल आप कर सकते हैं । जैसे '' हम ऐसी सब किताबें काबिले ज़ब्‍ती समझते हैं, के जिनको पढ़ के बेटे बाप को ख़ब्‍ती समझते हैं ।
हज़ल की विधा वैसे भी हर दौर में रही है । हां ये ज़रूर है कि उसको उतनी मान्‍यता नहीं मिल पाई है । फिर भी आपका प्रयास अच्‍छा है । एक बात औश्र कहना चाहता हूं कि आप समस्‍या पूर्ती का काम भी करें मिसरा उला दे दें और उस पर मिसरा सानी की गिरह लगवाएं । जैसे मुझे एक मिसरा उला मिला '' हवा धीरे ज़रा बहियो सनम की टांग टूटी है '' अब इसका मिसरा सानी नहीं मिल पा रहा है तो इस तरह के काम भी आप समस्‍या पूर्ती के कर सकते हैं । शुभकामनाएं

पंकज सुबीर said...

आप अच्‍छा कर रहे हैं हालंकि मैं जानता हूं कि आपको विरोध का सामना करना पड़ रह होगा । मैं आपके ये शेर नियमित पढ़ता हूं । मेरा मानना है कि आप अगर नाम सस्‍ता शेर की जगह कुछ और रख दें तो फिर अकबर इलाहबादी और चिरकिन जैसे शायरों का इस्‍तेमाल आप कर सकते हैं । जैसे '' हम ऐसी सब किताबें काबिले ज़ब्‍ती समझते हैं, के जिनको पढ़ के बेटे बाप को ख़ब्‍ती समझते हैं ।
हज़ल की विधा वैसे भी हर दौर में रही है । हां ये ज़रूर है कि उसको उतनी मान्‍यता नहीं मिल पाई है । फिर भी आपका प्रयास अच्‍छा है । एक बात औश्र कहना चाहता हूं कि आप समस्‍या पूर्ती का काम भी करें मिसरा उला दे दें और उस पर मिसरा सानी की गिरह लगवाएं । जैसे मुझे एक मिसरा उला मिला '' हवा धीरे ज़रा बहियो सनम की टांग टूटी है '' अब इसका मिसरा सानी नहीं मिल पा रहा है तो इस तरह के काम भी आप समस्‍या पूर्ती के कर सकते हैं । शुभकामनाएं