Wednesday, 26 December 2007

nostalgia

yaad un shamo ki ab bhi basi hai meri nason mein,
vo le ke pavva karna safar roadways ki Buson mein.

2 comments:

Ashok Pande said...

बेहतरीन ट्रिप डाउन नोस्टाल्जिआ लेन. एक दफ़ा यूं ही नैनीताल से भीमताल रोडवेज़ की बस में जाते हुए एक शेर का जन्म हुआ था. बहुत कड़ाके की ठंड थी और बस की सारी खिड़्कियां खुली हुई थीं. जेब में धरा पव्वा जाने कैसे लीक करता हुआ आधा रह गया था. उस के पहले गुलाम अली की 'दरीचा बेसदा कोई नहीं है/ अगर्चे बोलता कोई नहीं है' की तर्ज़ पर 'गलीचा बिन धुला कोई नहीं है/ अगर्चे बैठता कोई नहीं है' जैसी कालजई रचना कर चुकने के बाद मेरे मित्र ने उस ठन्ड और गिर चुकी दारू के गम को यूं भुलाने की कोशिश की थी मुनीश भाई:

खुली हैं खिड़कियां हर बस की लेकिन
सड़क पर थूकता कोई नहीं है.

मुनीश ( munish ) said...

uttam maharaj..dhan bhaag.