इस ब्लास्फ़ेमी के लिए मुझे कोई मुआफ़ नहीं करेगा. पर क्या कीजिए हमें तो यूं भी ट्रबल और वूं भी ट्रबल. बाबा फ़ैज़, आप तो बुरा न मानना प्लीज़. बच्चे की नादानी है, सो माफ़ी की एप्लीकेशन भेजता हूं साथ साथ:
मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो कुकुरहाव है हयात
तेरा मुंह है तो ग़म-ए-मुर्ग़ का लफड़ा क्या है
अपने चूरन से है पेटों में भोजन का सवाद
तेरी चांपों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो पड़ोसी की चूं हो जाये
मूं न था मैं ने फ़क़त चाहा था मूं हो जाये
और भी दुम हैं ज़माने में मुझ कुत्ते के सिवा
बोटियां और भी हैं बकरे की रानों के सिवा
मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
अनगिनत कुतियों के तारीक-ओ-लतीफ़ाना जिस्म
फ़ैशन-ए-आज-ओ-माज़ी के दुत्कारे हुये
जा-ब-जा भूंकते कूचा-ओ-बाज़ार में तमाम क़िस्म
बोटियां चाबते औ ना कभी नहलाये हुये
जिस्म पकते हुये अमरूद के सड़े कीड़ों से
मिर्च लगती हुई बाज़ार आई हूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी जाहिल है तेरा श्वान मग़र क्या कीजे
और भी दुम हैं ज़माने में मुझ कुत्ते के सिवा
बोटियां और भी हैं बकरे की रानों के सिवा
मुझ से कुत्तों सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
-श्वान हल्द्वानवी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
उफ़...।
बाबा फै़ज से न डरें लेकिन उनके ख़ासमख़ास गीत चतुर्वेदी जी से ज़रूर बात कर लें।
वैसे आज मैं 900 साल के बाद हंस पड़ी।
आप तो गए काम से. फैज साहब पक्का गुस्सा होंगे और अगर उन्होंने आँख टेढी कर दी आपके ऊपर तो आपके मोहल्ले के कुत्ते रात भर सोने नही देंगे.. फ़िर गाते रहिएगा..
बहुत अच्छा लिखा है. ऐसे ही लिखिए. कुछ देर पहले ही ये गाना सुना नूरजहाँ की आवाज़ में.. और उसका दूसरा टाइप भी पढने मिल गया...
.
चलिये भाई, नहीं माँगते..फिर
झेल सकें तो गधे सी छलेगी ?
सुभान अल्लाह ...
भों ..भों .....
हाऊ-हाऊ!!
हाऊ-हाऊ!!
दोबारा पढा ।
एक बार फ़िर से मुस्कुराहट आई ।
बहुत अच्छे
Post a Comment