Thursday, 31 July 2008

घुड़की जो दिखाओ...

ये एक मित्र ने सुनाई थी-

मेरा ये बौस हाय रे मर क्यूँ नहीं जाता,
सर पे खड़ा है सीट पर क्यूँ नहीं जाता,

जब सामने दारू है और हाथ में पत्ते,
तुम पूछते हो कि वो घर क्यूँ नहीं जाता,

फिर लाया इम्तिहान में तू मुर्गी का अन्डा,
ओ बेहया तू डूब के मर क्यूँ नहीं जाता,

दो-चार किलो सौंफ़ तो मैं फ़ाँक चुका हूँ,
दारू का मेरे मुँह से असर क्यूँ नहीं जाता,

झाँका जो एक बार उसकी माँ थी सामने,
उस दिन से मैं अपनी छत पर नहीं जाता,

सीखा है ज़ीस्त से सबक हमने ये यारों,
घुड़की जो दिखाओ तो बन्दर नहीं जाता...

4 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

हा हा हा हा हा हा हा ....

शोभा said...

झाँका जो एक बार उसकी माँ थी सामने,
उस दिन से मैं अपनी छत पर नहीं जाता,

सुन्दर अभिव्यक्ति।

अनूप भार्गव said...

बढिया है । :-)

बैठा है सुबह से बालों को बिखेरे
महबूब मेरा आज संवर क्यों नहीं जाता

रश्मि प्रभा... said...

मज़ा आ जाता है.......