Sunday, 23 December 2007

इस दफ़ा जनाब बशीर बद्र से माफ़ी मांगते हुए

कोई पान भी न खिलाएगा, जो पडे़ मिलोगे उधार में
ये नई दुकां है खुली यहां, कभी कैश पैसे दिया करो

5 comments:

इरफ़ान said...

दुकान को दुकाँ कर देने से भी वहाँ उधार न मिलेगा लेकिन हमारी दुकान चलती रहेगी. लगता है आपके मोहल्ले की पुरानी दुकान बंद हो गई है. आपने अपनी दास्ताँ खूब सुनाई.

ALOK PURANIK said...

भई दाद उधार रही। बहुत सारी।

अमिताभ मीत said...

तुम पान ही में अंटक गए, मुझे उस से आगे की फिक्र है
अब चंद दिन की तो बात है, रोज़ एक अद्धा दिया करो

Ashok Pande said...

ठीक कर दिया मालिक. आप का रूह आफ़ज़े में लिपटा इशारा भी समझ लिया लगे हाथ. जय बोर्ची.

Ashish Maharishi said...

शानदार है पान की रचना