Tuesday, 23 October 2007

कल्लोपरी की आसिकी


खुदा की देन है मेरे महबूब का काला रंग
तिल बनाना चाहा था स्याही बिखर गई

3 comments:

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब ....
दम है...

अनामदास said...

साहब
ये रंगभेदी, नस्लभेदी शायरी है, पोलिटिकली इनकरेक्ट है, नहीं चलेगा. रंग की नहीं सिर्फ़ तासीर की बात करिए, काले हैं तो क्या हुआ, दिल वाले हैं.

इरफ़ान said...

अनामदास से सहमत. बहुत दिन बाद दिखे सस्ता में?