साहेबान न तो हिन्दी आती है न उर्दू। फारसी जैसी महान भाषा की क्या कहूं। मगर सायरी में बहुत लुफ्त आता है कम्बखत। बीस साल पहले मेरे प्यारे भतीजे रफ़त आलम उर्फ पप्पुन ने एक महान फुस्कारा शेर सुनाया था। पप्पुन के हिसाब से ‘बैतूलखला’ का अर्थ शौचालय होता है और ‘री’ माने वायु विसर्जन से उपजी ध्वनि। हो सकता है यहां स्पैलिंग और अर्थ वगैरा की मिस्टेकें हों मगर असली बात इन लफ्जों से अलहदा है।
बाकी जिस तरह का कोल्ड शोल्डर भाई लोग इस कोटि के शेरों को दे रहे हैं बन्दे के दिल में तमाम तरह के गलत सलत खयालातों का उठना लाज़िमी है। हो सकता है यह आखिरी फुस्कारा शेर हो यहां। वैसे इस तरह के शेर कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि वैज्ञानिक शोध बतलाते हैं कि एक मनुष्य (यदि जीवित हो तो) दिन में औसतन चौदह बार नैसर्गिक वायु विसर्जन करता है। मरने के बाद भी आदमी की देह से एक बार वायु बाहर आती है। यह प्रक्रिया प्रेम से भी ज्यादा नैसर्गिक है और यकीन मानिए प्रेम से ज्यादा सुकूनदेह भी। मैं तो सीरियसली इस कोटि के काव्य हेतु एक नया ब्लॉग चालू करने की सोच रहा हूं। क्या कहते हो इरफान बाबू। फिलहाल ये रिया सेर :
बैतूलखला से री की तरन्नुम सी आ रही
शायद कोई हसीना पेचिश में मुब्तिला है
(एक झोंक में ब्लॉग भी बन सा गया, www.havahavai.blogspot.com पे भी आयें साहेबान.)
Monday, 5 November 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
सस्ता शेर पढाते रहें.
अतुल
Post a Comment