Sunday, 18 November 2007

लावनी के रंग


लोक गायकी में लावनी अब एक मृतप्राय कला है. जौनपुर के जिन लावनी गायकों से हम परिचित है‍ वे सार्थक आ‍दोलन से जुड़े गायक थे. अध्येताओं ने इस कला पर अध्ययन के दौरान पाया है कि यह लोकप्रिय और ऊर्जा से भरपूर कला थी. इसमें सक्रिय घरानों ने ख़ूब नाम कमाया और जनसंवेदना को हरा-भरा बनाए रखा. तुर्रा और कलगी से अलग किये जानेवाले दो घरानों के बीच चलने वाली नोकझोंक आज भी उन्हें याद है जो उस दौर की लावनी के गवाह हैं. बात को कहने की कलात्मक मजबूरियां कभी उनकी राह में रोडा नहीं बनीं. उन्होंने मौक़ा-ब-मौक़ा अपने ख़ालिस अंदाज़ का सहारा लिया लेकिन कभी लोगों की नज़र में हेय नहीं बने.

बादल मियां तुर्रावाले ने जब पूछा-
यह किधर से आई घटा किधर से पानी,
दो जवाब इसका आप जो हो गुर ज्ञानी.

तो बाबा बनारसी कलगीवाले ने जवाब दिया-
पढ़-पढ के फ़ाज़िल हुए, बात नहीं जानी,
बादल की फट गई गांड़ बरसता पानी.

2 comments:

Ashok Pande said...

हिम्मत का काम है बाबू इस तरह की बातें लिखना। याद नहीं क्या कह गए थे मीर बाबा :

"अपने कूचे में निकलियो तो सम्हाले दामन ..."

अब वेरी गुड के इलावा क्या लिखूँ इरफान। अच्छी शुरुआत। देखें किसमें कितना है दम।

मुनीश ( munish ) said...

dhanya dhanya! sadhu sadhu!