Monday, 22 October 2007

दारू ख़राब ला के

दारू ख़राब ला के बचाए जो चार सौ
दो टैक्सी में खर्च हुए दो इलाज में

(ज़फर साब से माफ़ी के साथ)

6 comments:

अजित वडनेरकर said...

अशोकजी, अद्भुत है यह प्रयास। हम जैसे उन हिन्दुस्तानियों को जो तथाकथित सभ्य लोगों के बीच विचर रहे हैं, बीच बीच में भदेस का बुखार आता है। वह टायफाइड में बदले इससे पहले ही उसे सस्ता शेर पर आ जाना चाहिए या लिख लेना चाहिए। सुन लेना चाहिए या सुना लेना चाहिए।
हमारी दिली बधाई कुबूल फर्माएं । हमें आपसे ईर्ष्या भी है कि ये आइडिया मोबाईल हमारे कानों में क्यों नहीं बजा। बहरहाल आपकी टीम के मेंबर तो हम बन ही सकते हैं। करते हैं सात शेरों का जुगाड़...


...आपने सचमुच अद्भुत काम किया है। मुदित हूं, पर शेर जल्दी इकट्ठा हो जाएंगे , मुतमईन नहीं हू।

LIC Adviser said...

Yaar ... pahli baar apke blog par nazar gayi hai ......

bahoot achhe ....

Very good ...

vah - vah .... pichhle saare sher ke liye ek saath ...ek tata - SUMO bhar ke vah vah

Anonymous said...

वाह वाह क्या बात है!

Ashok Pande said...

फुस्कारे शेर पर आप इकलौते शख्स थे दाद देने वाले। अलबत्ता वो आपने मुझे मेल पर दी थी। आप जैसे भाषाविद की दाद पा कर सस्ता शेर दुबारा ज्वाइन करना सफल हो गया। वैसे इरफान भाई इस शानदार ब्लॉग के निर्माता हैं। आप को वही यहाँ बुलाएँगे। इस के पहले कुछ भद्रजनों ने इस ब्लॉग को लेकर अपनी hypocrisy के कारण मुझे यहाँ से निकाल ही दिया था। आप और इरफान जैसे शानदार लोग दुनिया में हैं - यह यहाँ बने रहने के लिए पर्याप्त है।

इरफान बाबू, अजित भाई को बुलावा भेजो ना जल्दी से!

इरफ़ान said...

Dear Ajitji!
Please send your email id at ramrotiaaloo@gmail.com
your presence will be highly appreciated.Thanx
Irfan
www.sirfirf.blogspot.com

अजित वडनेरकर said...

शुक्रिया इरफान भाई, अशोक भाई बज्म-ऐ-सुब्हानअल्लाह में दाखिला देने के लिए।
इस सस्ते शेर की महफिल में हिप्पोक्रेट्स का भी दखल है क्या ?
अक्सर जो किया करते हैं पाखंड-दिखावा

भूले से न देना कभी महफिल में बुलावा


अशोक भाई, हिन्दी भाषा और संस्कृति को समझना चाहता हूं और ऐसे ही प्रयासों के तहत जो कुछ जानने को मिलता है वही सबके साथ साझा कर रहा हूं। भाषाविद् शब्द तो खैर बहुत भारी हो गया, हमें तो भाषा की पूरी समझ का भी मुगालता नहीं है।