BUJHAANA PYAAS KA SEEKHA HUMNE SEHRA KE OONT SE,
AUR GAM KO GALAT KARTE GAYE HUM RUM KE GHOONT SE.
Friday, 30 November 2007
Tuesday, 27 November 2007
Monday, 26 November 2007
अकल से मोटा
अकल से मोटा हमारा चाम होना चाहिऐ /
हो भले थू- थू मगर कुछ नाम होना चाहिऐ //
प्यार करने के लिए काफी कलेजा ही नही /
बाप से बेटा तनिक बदनाम होना चाहिऐ //
हो भले थू- थू मगर कुछ नाम होना चाहिऐ //
प्यार करने के लिए काफी कलेजा ही नही /
बाप से बेटा तनिक बदनाम होना चाहिऐ //
Friday, 23 November 2007
इक़्बाल और माजिद लाहौरी की रूह से माफ़ी के साथ

कमज़ोर मक़ाबल हो तो फ़ौलाद हे जरनील
अमरीकी हुं सरकार तो औलाद हे जरनील
क़मारी व ग़फ़ारी व क़दोसी व जबरोत
इस क़सम की हर क़ैद से आज़ाद हे जरनील
जरनील की आंखो में खटकती हे अदालत
हुं जज जो आज़ाद तो बरबाद हे जरनील
हर वक़्त वा पहने हे सदारत में भी वर्दी
बीवी भी उतरवाये तो नाशाद हे जरनील
दरानी व अफ़गन की क़सोरी व शजाएत
शीतान के इन, उन चीलयां का उस्ताद हे जरनील
Thursday, 22 November 2007
`बन्दर सभा´ के कुछ अशआर
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885)संभवत: हिन्दी के पहले पैरोडीकार हैं।उन्होंने नवाब वाजिद अली शाह `अख्तर` के नाटक `इन्दर सभा´ की पैरोडी `बन्दर सभा´ के नाम से लिखी थी ।इसी का एक टुकड़ा पेश है-
(आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा के )
आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।
गोया महमिल से व लैली उतरी आती है।
तैल ओ पानी से पट्टी है संवारी सिर पर
मुंह पै मांझा दिए जल्लादो जरी आती है।
झूठे पठ्ठे की है मूबाफ पड़ी चोटी में
देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है।
पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी
हाथ में पायंचा लेकर निखरी आती है।
मार सकते हैं परिन्दे भी नही पर जिस तक
चिड़या वाले के यहां अब व परी आती है।
(आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा के )
आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।
गोया महमिल से व लैली उतरी आती है।
तैल ओ पानी से पट्टी है संवारी सिर पर
मुंह पै मांझा दिए जल्लादो जरी आती है।
झूठे पठ्ठे की है मूबाफ पड़ी चोटी में
देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है।
पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी
हाथ में पायंचा लेकर निखरी आती है।
मार सकते हैं परिन्दे भी नही पर जिस तक
चिड़या वाले के यहां अब व परी आती है।
Wednesday, 21 November 2007
फ़्रस्टु शेर..
डाली डाली डाली १ फ़ूल पर मैने नजर डाली
हाय रे मेरी किस्मत, जिस फ़ूल पर मैने नजर डाली
उसे पहले ही काट लिया माली..
हाय रे मेरी किस्मत, जिस फ़ूल पर मैने नजर डाली
उसे पहले ही काट लिया माली..
पी के का जीवन और सारे सस्ते शायरों को खुला निमंत्रण
मय्यत में गया पी के, शादी में गया पी के
दिल्ली गया तो पी के, घर लौट पहुँचा पी के
हुआ पोपुलर वो पी के, था नाम उस का पी के
पी के की वजह लोगो, यारों की बढ़ी जी के
उस पी के नाम शख्स का कल पढ़ के फ़ातेहा
हम घर की रहगुज़र थे कि घटा एक सानेहा
इक भूत मिला हाथ में पव्वा लिए कहता
कुछ भात दो और कुछ दो मुझे छोले कढ़ी पी के
(समस्त सस्ते शायर भाइयों से अपील है कि इन दो छंदों में मीटर की कमियाँ दूर करें और अपनी तरफ से कम-अज-कम एक एक छंद अवश्य जोडें। पी के भाई के जीवन की कहीं तो कोई कथा रेकार्ड हो जावे। जय बोर्ची! जय सस्तापन!!)
दिल्ली गया तो पी के, घर लौट पहुँचा पी के
हुआ पोपुलर वो पी के, था नाम उस का पी के
पी के की वजह लोगो, यारों की बढ़ी जी के
उस पी के नाम शख्स का कल पढ़ के फ़ातेहा
हम घर की रहगुज़र थे कि घटा एक सानेहा
इक भूत मिला हाथ में पव्वा लिए कहता
कुछ भात दो और कुछ दो मुझे छोले कढ़ी पी के
(समस्त सस्ते शायर भाइयों से अपील है कि इन दो छंदों में मीटर की कमियाँ दूर करें और अपनी तरफ से कम-अज-कम एक एक छंद अवश्य जोडें। पी के भाई के जीवन की कहीं तो कोई कथा रेकार्ड हो जावे। जय बोर्ची! जय सस्तापन!!)
Tuesday, 20 November 2007
लाईनमारु शेर
तेरे नयनो कि ब्यूटी ने मुझे एट्रक्ट किया।
औरो को रिजेक्ट किया, बस तुझे ही सेलेक्ट किया॥
तुझसे रिक्वेस्ट है कि रिफ़्युज ना करना।
मेरे मोहब्बत के बल्ब को फ़्युज ना करना..
औरो को रिजेक्ट किया, बस तुझे ही सेलेक्ट किया॥
तुझसे रिक्वेस्ट है कि रिफ़्युज ना करना।
मेरे मोहब्बत के बल्ब को फ़्युज ना करना..
Monday, 19 November 2007
Sunday, 18 November 2007
लावनी के रंग

लोक गायकी में लावनी अब एक मृतप्राय कला है. जौनपुर के जिन लावनी गायकों से हम परिचित है वे सार्थक आदोलन से जुड़े गायक थे. अध्येताओं ने इस कला पर अध्ययन के दौरान पाया है कि यह लोकप्रिय और ऊर्जा से भरपूर कला थी. इसमें सक्रिय घरानों ने ख़ूब नाम कमाया और जनसंवेदना को हरा-भरा बनाए रखा. तुर्रा और कलगी से अलग किये जानेवाले दो घरानों के बीच चलने वाली नोकझोंक आज भी उन्हें याद है जो उस दौर की लावनी के गवाह हैं. बात को कहने की कलात्मक मजबूरियां कभी उनकी राह में रोडा नहीं बनीं. उन्होंने मौक़ा-ब-मौक़ा अपने ख़ालिस अंदाज़ का सहारा लिया लेकिन कभी लोगों की नज़र में हेय नहीं बने.
बादल मियां तुर्रावाले ने जब पूछा-
यह किधर से आई घटा किधर से पानी,
दो जवाब इसका आप जो हो गुर ज्ञानी.
तो बाबा बनारसी कलगीवाले ने जवाब दिया-
पढ़-पढ के फ़ाज़िल हुए, बात नहीं जानी,
बादल की फट गई गांड़ बरसता पानी.
बादल मियां तुर्रावाले ने जब पूछा-
यह किधर से आई घटा किधर से पानी,
दो जवाब इसका आप जो हो गुर ज्ञानी.
तो बाबा बनारसी कलगीवाले ने जवाब दिया-
पढ़-पढ के फ़ाज़िल हुए, बात नहीं जानी,
बादल की फट गई गांड़ बरसता पानी.
TRUCK PE LIKHA EK SHER
HUMKO TO DARU NE MARA CIGARETTE ME KAHAN DUM THA,
AJI KISTI VAHIN DOOBI APNI KE PANI JAHAN PE KAM THA.
AJI KISTI VAHIN DOOBI APNI KE PANI JAHAN PE KAM THA.
Thursday, 15 November 2007
ARUN MADHUMAY DESH:2
KOI SHAIDAI WHISKEY KA ,TO KOI RUM PE FIDA HAI,
MANZIL HAI SABKI EK YAARA,RASTA MAGAR JUDA HAI.
MANZIL HAI SABKI EK YAARA,RASTA MAGAR JUDA HAI.
Tuesday, 13 November 2007
अकबर चचा के अशआर : २
अकबर चचा के अशआर : एक
Monday, 12 November 2007
TRIBUTE TO PAVVA
ADDHEY SE NAHI PARHEZ MUJKO,
ADHDHEY SE NAHI PARHEZ MUJHKO, PAR PAVVA ZARA TRENDY HAI,
KHEESAY ME SAMA JAYE HAI , YE ITEM BADA HANDY HAI.
ADHDHEY SE NAHI PARHEZ MUJHKO, PAR PAVVA ZARA TRENDY HAI,
KHEESAY ME SAMA JAYE HAI , YE ITEM BADA HANDY HAI.
अंडा तो सफ़ेद होता है !!!!

अंडा तो सफ़ेद होता है !
सफ़ेद तो दूध भी होता है !!
दूध तो भैंस देती है !
भैंस तो काली होती है !
काला तो आदमी भी होता है !
आदमी तो पान खाता है !!
पान तो लाल होता है !
लाल तो गुलाब भी होता है !!
गुलाब में कांटे होते हैं !
कांटे तो मछली में भी होते हैं !!
मछली तो अच्छी होती है !
अच्छा तो इंसान भी होता है !!
इंसान तो लम्बा होता है !
लम्बा तो ये मैसेज भी है !!
मुझे तो दिमाग खाना था !
खा लिया !!
( ये एक sms msg है )
Thursday, 8 November 2007
स्वर्गीय अवधेश का एक शेर और संक्षिप्त परिचय 'टंटा' समिति का
१९९० में मैंने पहली बार देहरादून के संस्कृति कर्मियों के बेहद ऊर्जावान केंद्र 'टिपटौप' रेस्त्रां के दर्शन किये थे। पता लगा था कि मशहूर कवि-कलाकार अवधेश (जिन्हें अज्ञेय जी ने अपनी अन्तिम सप्तक श्रृंखला में जगह दी थी) और गजलकार हरजीत सिंह भी यहीं से ऑपरेट करते हैं। अन्य साथियों के साथ ये दोनों पर अपने तमाम साहित्यिक ऑपरेशन 'टंटा' समिति के नाम से चलाया करते थे। आमतौर पर टंटों से दूर रहने वाली इस संस्था का यह abrreviated नाम था। TANTA का पूरा नाम था : Total Awareness for Neo Toxic Adventures. ज़रा देखिए यह समिति अपने हिन्दी अनुवाद में किस कदर आकर्षक लगती थी : 'पूर्ण टुन्नावस्था का नव नशीलित रोमांच'।
संस्था के अघोषित मुखिया स्वर्गीय अवधेश का एक सस्ता खुसरोवादी शेर मंत्रवाक्य की हैसियत रखता था। पेश है:
गोरी सोवत सेज पे, सो मुँह पर डारे खेस
चल खुसरो घर आपने साँझ भई अवधेस
संस्था के अघोषित मुखिया स्वर्गीय अवधेश का एक सस्ता खुसरोवादी शेर मंत्रवाक्य की हैसियत रखता था। पेश है:
गोरी सोवत सेज पे, सो मुँह पर डारे खेस
चल खुसरो घर आपने साँझ भई अवधेस
Wednesday, 7 November 2007
दर्द भोगपुरी एक दफा फिर बज़रिये नवीन नैथानी
सूखे गले के साथ भी वाइज़ के पास थे
अपनी क़सम! ख्वाब में क्या क्या नहीं किया
* सुधी पाठकों को याद दिलाता चलूँ कि नवीन नैथानी उर्फ़ दर्द भोगपुरी मशहूर कहानीकार हैं। कुछ समय पहले मैंने उनका एक शेर यहाँ लगाया था जो कतिपय कारणों से तब हटा दिया गया था। उसी शेर को दुबारा यहाँ लगाते हुए मुझे देहरादून के दो शानदार शायर याद आ रहे हैं : स्वर्गीय अवधेश और स्वर्गीय हरजीत की सदारत में चलने वाली देहरादून की टंटा समिति के प्रमुख स्तंभ थे दर्द साहब। दर्द साहब के ये तमाम शेर उसी दौर के हैं। अब न हरजीत भाई हैं न अवधेश भाई न देहरादून। खुद नवीन भाई भी डाक पत्थर में जमे हैं आजकल। टंटा समिति पर एक पोस्ट जल्द आयेगी। फिलहाल जादै इमोस्नल न होता हुआ मैं दर्द साहब के स्थाई भाव को व्यक्त करता उन्ही का शेर लगाता हूँ :
शराब-ओ-जाम के इस दर्जा वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर नसीब हुए
अपनी क़सम! ख्वाब में क्या क्या नहीं किया
* सुधी पाठकों को याद दिलाता चलूँ कि नवीन नैथानी उर्फ़ दर्द भोगपुरी मशहूर कहानीकार हैं। कुछ समय पहले मैंने उनका एक शेर यहाँ लगाया था जो कतिपय कारणों से तब हटा दिया गया था। उसी शेर को दुबारा यहाँ लगाते हुए मुझे देहरादून के दो शानदार शायर याद आ रहे हैं : स्वर्गीय अवधेश और स्वर्गीय हरजीत की सदारत में चलने वाली देहरादून की टंटा समिति के प्रमुख स्तंभ थे दर्द साहब। दर्द साहब के ये तमाम शेर उसी दौर के हैं। अब न हरजीत भाई हैं न अवधेश भाई न देहरादून। खुद नवीन भाई भी डाक पत्थर में जमे हैं आजकल। टंटा समिति पर एक पोस्ट जल्द आयेगी। फिलहाल जादै इमोस्नल न होता हुआ मैं दर्द साहब के स्थाई भाव को व्यक्त करता उन्ही का शेर लगाता हूँ :
शराब-ओ-जाम के इस दर्जा वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर नसीब हुए
Tuesday, 6 November 2007
दर्द भोगपुरी उर्फ़ नवीन नैथानी का ताज़ा शेर
मैं तमाम पव्वे उठा उठा के, गरीब लोगों में बाँट दूं।
बस एक बार वो मैकदे का निजाम दे मेरे हाथ में।
(नवीन भाई ने ये शेर आज ही सुबह मुझे एस एम् एस पर इसे भेजा है)
बस एक बार वो मैकदे का निजाम दे मेरे हाथ में।
(नवीन भाई ने ये शेर आज ही सुबह मुझे एस एम् एस पर इसे भेजा है)
Monday, 5 November 2007
पप्पुन का सेर
साहेबान न तो हिन्दी आती है न उर्दू। फारसी जैसी महान भाषा की क्या कहूं। मगर सायरी में बहुत लुफ्त आता है कम्बखत। बीस साल पहले मेरे प्यारे भतीजे रफ़त आलम उर्फ पप्पुन ने एक महान फुस्कारा शेर सुनाया था। पप्पुन के हिसाब से ‘बैतूलखला’ का अर्थ शौचालय होता है और ‘री’ माने वायु विसर्जन से उपजी ध्वनि। हो सकता है यहां स्पैलिंग और अर्थ वगैरा की मिस्टेकें हों मगर असली बात इन लफ्जों से अलहदा है।
बाकी जिस तरह का कोल्ड शोल्डर भाई लोग इस कोटि के शेरों को दे रहे हैं बन्दे के दिल में तमाम तरह के गलत सलत खयालातों का उठना लाज़िमी है। हो सकता है यह आखिरी फुस्कारा शेर हो यहां। वैसे इस तरह के शेर कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि वैज्ञानिक शोध बतलाते हैं कि एक मनुष्य (यदि जीवित हो तो) दिन में औसतन चौदह बार नैसर्गिक वायु विसर्जन करता है। मरने के बाद भी आदमी की देह से एक बार वायु बाहर आती है। यह प्रक्रिया प्रेम से भी ज्यादा नैसर्गिक है और यकीन मानिए प्रेम से ज्यादा सुकूनदेह भी। मैं तो सीरियसली इस कोटि के काव्य हेतु एक नया ब्लॉग चालू करने की सोच रहा हूं। क्या कहते हो इरफान बाबू। फिलहाल ये रिया सेर :
बैतूलखला से री की तरन्नुम सी आ रही
शायद कोई हसीना पेचिश में मुब्तिला है
(एक झोंक में ब्लॉग भी बन सा गया, www.havahavai.blogspot.com पे भी आयें साहेबान.)
बाकी जिस तरह का कोल्ड शोल्डर भाई लोग इस कोटि के शेरों को दे रहे हैं बन्दे के दिल में तमाम तरह के गलत सलत खयालातों का उठना लाज़िमी है। हो सकता है यह आखिरी फुस्कारा शेर हो यहां। वैसे इस तरह के शेर कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि वैज्ञानिक शोध बतलाते हैं कि एक मनुष्य (यदि जीवित हो तो) दिन में औसतन चौदह बार नैसर्गिक वायु विसर्जन करता है। मरने के बाद भी आदमी की देह से एक बार वायु बाहर आती है। यह प्रक्रिया प्रेम से भी ज्यादा नैसर्गिक है और यकीन मानिए प्रेम से ज्यादा सुकूनदेह भी। मैं तो सीरियसली इस कोटि के काव्य हेतु एक नया ब्लॉग चालू करने की सोच रहा हूं। क्या कहते हो इरफान बाबू। फिलहाल ये रिया सेर :
बैतूलखला से री की तरन्नुम सी आ रही
शायद कोई हसीना पेचिश में मुब्तिला है
(एक झोंक में ब्लॉग भी बन सा गया, www.havahavai.blogspot.com पे भी आयें साहेबान.)
Sunday, 4 November 2007
इक दिन
Thursday, 1 November 2007
दो शेरों को अलग करने के लिये

चटनी के सैम बुधराम
विमल भाई ने आज ये दो गाने जारी कर के कमाल कर दिया. मेरे दिमाग़ में इस शाम बस यही बज रहे हैं.
मैंने सोचा कि ये दोनों गानें आप तक कम समय में और लड़ते हुए फट पहुंच जाएं.
तो लीजिये भाई रोहित की कारीगरी और मेरी बददिमाग़ी का लुत्फ़ उठाइये.
ये उलझे हुए शेर ख़ास तौर पर उन लोगों के लिये जिन्हें ठुमरी पर ये सुलझे गाने सुनने की तौफ़ीक़ न हुई.
सुलझाने के लिये यहां जाएं.
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