Monday, 19 November 2007

माफ़ी ग़ालिब चचा

हाँ जेब में कौड़ी नहीं, खीसे में तो रम है
करने दे मुझे पीना-ओ-खाना परे जा के

4 comments:

said...

अशोक जी नमस्कार,
आपके लेख पढे , ऐसा मालूम होता है कि गालिब और बच्चन जी के जाने के बाद आप ही उनकी विरासत का बोझ अपने कन्धों पर उठाये हुए हैं!
सौरभ

Ashok Pande said...

जे इत्ती बड़ी बात ना करो लल्ला। टुच्चा आदमी हूँ बस वही रहने दो सौरभ बाबू। थोडा कबाड़ा, थोड़ा लुच्चापन बचा रहे बस। कहाँ चचा ग़ालिब जिनके बारे में मेरा शेर आगे यूं है (बच्चन साब पे बात ने हो पागी):

"हलकी फुल्की ग़ज़ल कहे है, उल्फत के किस्से लिखता है
ग़ालिब जी का इल्म तो नहीं, हाँ शायर बदनाम बहुत है"

जय बोर्ची! जय कबाड़ !

said...

अच्छा जी! इसी बात पर बच्चन जी के अमर काव्य की ४ पंक्तियाँ मैं भी उद्धृत कर देता हूँ...

"भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।"

धन्यवाद,
सौरभ

मुनीश ( munish ) said...

lo ji apki is rasmayi varta pe main do adad pavve Bacardi white ke abhi nichhavar karta hoon.