जे इत्ती बड़ी बात ना करो लल्ला। टुच्चा आदमी हूँ बस वही रहने दो सौरभ बाबू। थोडा कबाड़ा, थोड़ा लुच्चापन बचा रहे बस। कहाँ चचा ग़ालिब जिनके बारे में मेरा शेर आगे यूं है (बच्चन साब पे बात ने हो पागी):
"हलकी फुल्की ग़ज़ल कहे है, उल्फत के किस्से लिखता है ग़ालिब जी का इल्म तो नहीं, हाँ शायर बदनाम बहुत है"
अच्छा जी! इसी बात पर बच्चन जी के अमर काव्य की ४ पंक्तियाँ मैं भी उद्धृत कर देता हूँ...
"भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।"
दोस्तो, ये तो आप महसूस करते ही होंगे कि शायरी की एक दुनिया वह भी है जिसे शायरी में कोई इज़्ज़त हासिल नहीं है. ये अलग बात है कि इसी दुनिया से मिले कच्चे माल पर ही "शायरी" का आलीशान महल खड़ा होता है, हुआ है और होता रहेगा. तो...यह ब्लॉग ज़मीन पर पनपती और परवान चढ़ती इसी शायरी को Dedicated है. मुझे मालूम है कि आप इस शायरी के मद्दाह हैं और आप ही इस शायरी के महीन तारों की झंकार को सुनने के कान रखते हैं. कोई भी शेर इतना सस्ता नहीं होता कि वो ज़िंदगी की हलचलों की तर्जुमानी न कर सके. बरसों पहले मैंने इलाहाबाद से प्रतापगढ़ जा रही बस में पिछली सीट पर बैठे एक मुसाफ़िर से ऐसा ही एक शेर सुना था जो हमारी ओरल हिस्ट्री का हिस्सा है और जिसके बग़ैर हमारे हिंदी इलाक़े का साहित्यिक इतिहास और अभिव्यक्तियों की देसी अदाएं बयान नहीं की जा सकतीं. शेर था-- बल्कि है--- वो उल्लू थे जो अंडे दे गये हैं, ये पट्ठे हैं जो अंडे से रहे हैं . .............इस शेर के आख़ीर में बस उन लोगॊं के लिये एक फ़िकरा ही रह जाता है जो औपनिवेशिक ग़ुलामी और चाटुकारिता की नुमाइंदगी कर रहे हैं यानी उल्लू के पट्ठे. --------तो, आइये और बनिये सस्ता शेर के हमराही. मैं इस पोस्ट का समापन एक अन्य शेर से करता हूं ताकि आपका हौसला बना रहे और आप सस्ते शेर के हमारे अपर और लोवर क्राईटेरिया को भांप सकें. पानी गिरता है पहाड़ से दीवार से नहीं, दोस्ती मुझसे है मेरे रोजगार से नहीं. --------------------------------------------- वैधानिक चेतावनी:इस महफ़िल में आनेवाले शेर, ज़रूरी नहीं हैं कि हरकारों के अपने शेर हों. पढ़ने-सुननेवाले इन्हें पढ़ा-पढ़ाया या सुना-सुनाया भी मानें. -------------------- इरफ़ान 12 सितंबर, 2007
सात सस्ते शेर इस महफ़िल में भेजने के बाद आपको मौक़ा दिया जायेगा कि आप एक लतीफ़ा भेज दें. तो देर किस बात की ? आपके पास भी है एक सस्ता शेर... वो आपका है या आपने किसी से सुना इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. बस मुस्कुराइये और लिख भेजिये हमें ramrotiaaloo@gmail.com पर और बनिये महफ़िल के सितारे.
4 comments:
अशोक जी नमस्कार,
आपके लेख पढे , ऐसा मालूम होता है कि गालिब और बच्चन जी के जाने के बाद आप ही उनकी विरासत का बोझ अपने कन्धों पर उठाये हुए हैं!
सौरभ
जे इत्ती बड़ी बात ना करो लल्ला। टुच्चा आदमी हूँ बस वही रहने दो सौरभ बाबू। थोडा कबाड़ा, थोड़ा लुच्चापन बचा रहे बस। कहाँ चचा ग़ालिब जिनके बारे में मेरा शेर आगे यूं है (बच्चन साब पे बात ने हो पागी):
"हलकी फुल्की ग़ज़ल कहे है, उल्फत के किस्से लिखता है
ग़ालिब जी का इल्म तो नहीं, हाँ शायर बदनाम बहुत है"
जय बोर्ची! जय कबाड़ !
अच्छा जी! इसी बात पर बच्चन जी के अमर काव्य की ४ पंक्तियाँ मैं भी उद्धृत कर देता हूँ...
"भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।"
धन्यवाद,
सौरभ
lo ji apki is rasmayi varta pe main do adad pavve Bacardi white ke abhi nichhavar karta hoon.
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