Tuesday, 5 February 2008

हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई - क्‍या अपने अल्‍हड़ बीकानेरी जी की ये ग़ज़ल सुनी है, नहीं तो पूरी यहां देखें

अब जब सभी लोग दूसरों की ही पेल रहे हैं तो मैं क्‍यों पीछे रहूं । पर आज जो गज़ल़ मैं दे रहा हूं ये जनाब अल्‍हड़ बीकानेरी जी की एक मज़ेदार ग़ज़ल है जिसका हर शेर आनंद देता है ।

लफ़्ज़ तोड़े मरोड़े ग़ज़ल हो गई

सर रदीफ़ों के फोड़े ग़ज़ल हो गई

लीद करके अदीबों की महफि़ल में कल

हिनहिनाए जो घोड़े ग़ज़ल हो गई

ले के माइक गधा इक लगा रेंकने

हाथ पब्लिक ने जोड़े गज़ल हो गई

पंख चींटी के निकले बनी शाइरा

आन लिपटे मकोड़े ग़ज़ल हो गई  

4 comments:

गुस्ताखी माफ said...

मास्साब, चार अशआर मेरे भी

लम्बा खर्रा वो लाये सुनाने, उसे,
ले भगे कुछ निगोड़े, गजल हो गई

बोले जितना कहोगे सुनेंगे, अगर
साथ में हो पकौड़े, गजल हो गई.

उनके मतले पे मतली सी आने लगी
कान अपने मरोड़े गजल हो गई

तू तो गूंगा है गुस्ताख, आगे तेरे
कोई लम्बी जो छोड़े गजल हो गई

काकेश said...

वाह वाह ...वाह वाह...

पंख चींटी के निकले बनी शाइरा
आन लिपटे मकोड़े ग़ज़ल हो गई

क्या बात है...

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अरे देता हूँ साहब, देता हूँ-

दाद हमने न दी तो हमारी पड़े,
पीठ पर बीस कोड़े, ग़ज़ल हो गयी!!!

-विजय सतनवी.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

शायरी न वायरी कुछ तुझे आता नहीं
अबे हट निगोडे गजल हो गई