Saturday, 23 February 2008

वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास उर्फ़ राजरिशी की आमद

'फ़िराक़' गोरखपुरी की लम्बी नज़्म 'माज़ी परस्त' से तीन टुकड़े:

कलचर की अहमियत को समझाते हैं
क्या फूल हिमाक़त के वो बरसाते हैं
दरशन हुए जाते हैं अभी भक्तों को
सोटा लिए वो राजरिशी आते हैं

झटकाते हैं कांधे अड़बड़ा जाते हैं
ऐसे मौकों पै हड़बड़ा जाते हैं
सुलझाने को कहिए कोई उलझी हुई बात
तो राजरिशी जी गड़बड़ा जाते हैं

वल्लाह निकालते हैं यों दिल की भड़ास
सब राजरिशी से बांधे बैठे थे आस
भूखों प्यासों को आज वक़्ते-तक़रीर
वो डांट पिलाई न रही न रही भूख न प्यास

(माज़ी परस्त: अतीत का पुजारी, राजरिशी: राजर्षि, वक़्ते-तक़रीर: भाषण के समय)