Tuesday 26 February 2008

लौंडा फ़क़ीर का: भाग दो

जब रागिनी सुने है तो ख़िफ़्फ़त* मिटाने को
सर बार - बार मोड़े है सिगरेट जलाने को
गरदन को भी हिलाए है उल्लू बनाने को
मैं राग जानता हूं फ़क़त यह जताने को
रह रह के मुस्कराए है लौंडा फ़क़ीर का

लिक्खा पढ़ा तो ख़ैर कुछ भी नहीं मगर
उलझा के डाल देता है अख़बार इधर उधर
जाहिल है और इल्म का रखता है कर्रो-फ़र*
रंगीन मोटी मोटी किताबें ख़रीद कर
शोकेस में जमाए है लौंडा फ़क़ीर का

मैदान में वो ठहरेंगे जो सूर बीर हैं
वो क्या धनी बनेंगे जो दिल के फ़क़ीर हैं
इस जग में पोतड़ों* के जो यारो अमीर हैं
गम्भीरता लिए हुए जिनके ख़मीर* हैं
मुफ़्त उनकी धज उड़ाए है लौंडा फ़क़ीर का

गर हम कहें कि आज तो राजा हो जमघटा
हो नाच रंग, धूम धड़क्का अहा अहा
तो एक हीजड़ा भी न बुलवाए बेहया
पर एक इशारा पाते ही बस कोतवाल का
सौ रंडियां नचाए है लौंडा फ़क़ीर का

(*ख़िफ़्फ़त: झेंप, कर्रो-फ़र: शान, पोतड़ा: पुश्तैनी अमीर )