फ़िराक़ साहब ने किसी ज़माने में भारत की सांस्कृतिक और राजनैतिक दरिद्रता, खोखली देशभक्ति और भाषाप्रेम के साथ साथ अफ़सरशाही पर तंज़ कसते हुए एक लम्बी कविता लिखी थी 'बन्दे मातरम'। सस्ते शेरों की महफ़िल में क्यूं न उसके कुछ हिस्से पेश किए जाएं। यह रही पहली किस्त:
राष्ट्र भाषा
सब जुमले टेढ़े मेढ़े हैं अलफ़ाज़ भी हैं रोड़े पत्थर
और इस पर तुर्रा यह है कि हम मीर-ओ-ग़ालिब से हैं बढ़कर
हम नाक काट लें 'सादी' की हम शेक्सपीयर के हैं हमसर
यह अहले-अदब ये अहले-क़लम किस बोली के हैं छूमन्तर
ये क़ौमी ज़बां के मोजिद हैं साहित्यरत्न, विद्यासागर
-बन्दे मातरम
सुनने वालों के होश उड़ें वह पढ़ के मारते अन्छर हैं
जो मुंह में आए बोल जाएं, शब्दों के यहां दलिद्दर हैं
इस ऊबड़ खाबड़ बोली में, वो झक्कड़ और बवंडर हैं
मतलब ही जड़ से उखड़ जाए वो चलते हुए चलित्तर हैं
हम 'हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान' लिख लोढ़ा हैं पढ़ पत्थर हैं
-बन्दे मातरम
Wednesday, 27 February 2008
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1 comment:
koi keh raha tha firaq sab hamesha firaq me rehte they aur log darte they unse akele milne mein. baharhal badhiya baat kahi unhone.
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