Friday, 22 February 2008
पतनशील होने से पहले की मासूम यादें!!
सन ८० की दहाई के किसी साल फिलिम director जनाब परकाश मैहरा की एक तस्वीर 'शराबी' देखी थी जिसमे इश्तेहारी दुनिया और सनीमे की मशहूर हस्ती अमीताभ बचन साहब ने एक ख़ाली गिलास कांच का अपने फौलादी पंजे में थामा हुआ है और अपनी ही रौ में बुदबुदाते हैं ,मगर कुछ इस तरेह के दूसरे हज़रात भी सुन सकें , आप फरमाते हैं : ''अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मैखाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में "
उनका ये कहना सनीमा हॉल में मौजूद उन खावातीनो -हज्रात को भी उदासी के समंदर में धकेल देता है जिन्होंने कभी मय चक्खी तो दूर जनाब सूँघी तक नहीं है ! आज वही शेर जब जनाब विजे शंकर ने यहाँ पेश किया तो पुरानी यादें ताज़ा हो आयीं । वैसे ये शेर किसी मशहूर शाइर का मालूम देता है , अगरचे किसी दानिश्मंद को मालूम हो तो यहाँ इत्तिला देके ओल्ड मंक का एक पव्वा हमसे कुबूल फरमाएं .
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