Thursday, 28 February 2008

शायर में भभकती फायर : विचार माला --१

"साहित्यिक अभिरुचि वालों का हाथ गणित मे अक्स़र तंग देखा गया है और इसीलिए मोल-भाव या 'बारगेनिंग' में वो कच्चे होते हैं " -अपने निजी अनुभव के आधार पर जब मैंने ये बात उस रोज़ अशोक पांडे से कही तो आपने एक वाकया बयां किया जो मेरी अवधारणा को और मज़बूत करता है । आज तो खैर देश भर में इम्पोर्टेड चीनी समान मिलता है ,पहले पहाडी जगहों पे या आस-पास ही मिलता रहा है । पांडे जी ने बताया की एक दफे कुछ नेपाली चीन में बने 'मिंक blanket' लेकर उनके यहाँ आए , उन्हें वो बहुत अच्छे लगे हालांकि दाम बहुत ज़ियादा--४४०० रुपये थे । फ़िर भी वो दाम चुकाने को राज़ी हो गए चूँकि ऐसा कोई सामान उन्होंने यहाँ के बाज़ार में देखा न था सो तुलना भी क्या करते ! लेकिन माता जी ने उन्हें रोका और कहा की वो कंबलों के सिर्फ़ ८०० रुपये देंगी , ये सुन कर भाव धम्म से सीधा २००० पर आ गया और अंततोगत्वा १२०० रुपैय्ये में वो नेपाली सहर्ष कम्बल बेच कर गए ! इस प्रकार के अनुभव मुझे भी अक्स़र हुए हैं मगर फिर भी मोल भाव में अक्स़र मात खाता रहा हूँ । इन दिनों बजट का मौसम है और 'सस्ते शेर' की punch line कहती है 'महंगाई के दौर में राहत की साँस ' सो इसीलिए अशोक भाई के कम्बल को संबल मान कर हाले दिल बयान कर बैठा । ऐसे में फ़िल्म 'रोटी कपडा और मकां' की एक क़व्वाली के ये अल्फाज़ याद आते हैं :
' एक हमें आँख की लड़ाई मार गयी ;
दूसरी हमेशा की तन्हाई मार गई ;
सोच सोच में जो सोच आई मार गई ;
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई ;
और बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ...
महंगाई मार गई .......

दोस्तों शायर शायरी करता है और सस्ती महंगी जैसी बन पड़ेगी वो करेगा ! लेकिन सस्ते शेर पे अब कुछ ऐसी बातें भी शेयर करने का वक़्त क्या नहीं आ गया है की जिस से शायर को ये भी पता चलता रहे के बढ़िया समान सस्ते दामों पर कहाँ से खरीदा जा सकता है ,मसलन मुझे फिल्मों की डीवीडी खरीदने का एक व्यसन सा था और मैं दिल्ली के पालिका बाज़ार से १०० रुपैय्ये की पायरेटेड डीवीडी खरीद कर भी इसलिए खुश होता था की उनकी quality बढ़िया थी और ४०० रुपैय्ये की ओरिजनल खरीदने की मेरी हैसियत न थी । उस रोज़ जब एक आवारा लड़के ने मुझे पुरानी दिल्ली की लाजपत राय मार्केट जाने की सलाह दी तो सहसा यकीन न हुआ मगर जब जाकर देखा तो पैरों तले की ज़मीन कद्दावर पहाड़ में तब्दील हो गई चूँकि वहां झक्कास quality की GODFATHER-the triology मात्र ३० भारतीय रुपिय्ये में मिल रही थी ! खुशी से ज्यादा मुझे अफ़सोस हुआ इस बात का की मैंने कितनी कमाई,जो कतई हराम की न थी , यूं ही जानकारी के अभाव में उड़ा दी । हो सकता है विदेशों में बैठे ब्लागरों को मेरी इन बातों से कोई सरोकार महसूस न हो मगर वो हर हिंदुस्तानी ब्लोगिया जिसे अपनी गाढी कमाई
से ही साहित्य, सिनेमा , आशिकी और सैरे -गुलशन के मजे लूटने हैं और भात रान्ध्ते हुए सस्ते शेर भी कहने हैं कम से कम वो यहाँ अपने ऐसे अनुभव हमसे ज़रुर बांटेगा की जिस से 'महंगाई के दौर में राहत की साँस' वाली बात सही साबित हो --ऐसी मेरी बिस्वास है !

6 comments:

इरफ़ान said...

भाई आप अद्भुत आदमी हैं. अब आपके इरादे नेक नहीं लगते. ज़रूर ही आपकी इन काविशों से सस्ता शेर सस्ती गहराइयों को प्राप्त करेगा.

Unknown said...

मुनीश - बहुत गंभीर मसला उठाया आपने - आप तो ऐसे न थे [ आवाज़ के अलावा ] ,
"आज महफ़िल के प्यालों को क्या नज़र- ऐ - गम लग गई ?
पानी में ओल्ड मोंक की मात्रा, लगता है कुछ कम दग गई"
चवन्नी को घिस घिस के चलाने से याद आया एक वक्त में "लोटपोट" नामकी अत्यन्त ऐतिहासिक पत्रिका में (शायद) लिखा गया था कि पकोडे खाते वक्त हाथ के बचे/ लिपटे तेल से मालिश की जाय तो सेहत भी बने और भूख भी मिटे - मनीष

Tarun said...

वहाँ कम से कम कोई लाजपत राय तो है जहाँ ३० में काम चल जाता है यहाँ तो ना लाजपत है ना गणपत

मुनीश ( munish ) said...

Manish bhai tum Dollar koot rahe ho isiliye ham pe hans rahe ho kyoon?
Tarun bhai is prakar ke bazaaron mein bade bade oscar winning director tak isi bhaav milte hain. ab ya to hame anti-piracy squad me bharti kiya jaaye varna kya hum saste ke maze bhi na len?

Unknown said...

मुनीश जी - गुस्ताखी माफ़ - [लगा आप बुरा मान गए] - वैसे मुफलिसी के वक्त के नाम
"डॉलर को कूटने के मौसम नए नए है / बोतल गिलास बेचे, बिजली के बिल दिए है"

मुनीश ( munish ) said...

ab itte bi bure na hain hum jo apka bura mane sarkar! kya khoob kaha subhanallah!