Monday, 4 February 2008

तेरे भाई वो नाटे और काले याद आते हैं

अपने शेर पेलने का एक अलग ही आंनद होता है और उस आनंद की ही खातिर हमने सस्‍ता शेर ज्‍वाइन ( अवैतनिक) करने के बाद से कोई भी शेर किसी दूसरे का नहीं पेला । अपने ही माल से काम चला रहे हैं बल्कि रोज ही खुद ही लिख रहे हैं । और लिख लिख कर ही पेल रहे हैं ।

चलिये एक और याद का शेर प्रस्‍तुत है

तेरे   भाई   वो नाटे   और   काले   याद   आते हैं

जो होते होते रे गय वो ही 'साले' याद आते हैं

ग़ज़ब मारा था उस जालिम ने यूं के आज तक हमको 

वो दिन जो हस्‍पतालों में निकाले याद आते हैं

2 comments:

चंद्रभूषण said...

क्या बात है साहब। खूब ज्यादा-ज्यादा लिखिए वरना महंगे हो जाएंगे।

Asha Joglekar said...

बढिया