Sunday 13 April 2008

तसव्वुर - ऐ - जाना !


ठहरी हुई दोपहरी में बहती रही बीयर की इक नदी,
के जाने कौन सन् की बात है , थी वो कौनसी सदी

3 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

ज़रा और ऊपर चढ़कर बताओ तो कोई बात बने,
जड़ों से लिपटकर नाच रहे हो, बहादुरी क्या है?

अपने लड़कपन में हम, फुनगी तक चढ़ जाते थे,
और उतारने के लिए जूते लेकर बाबा आते थे.

पंकज सुबीर said...

ज़रा तुम आम के इस वृक्ष पर चढ़ कर तो दिख‍लाओ
जड़ों पर बैठकर ऐसे नहीं तो भाव तुम खाओ
छुपा रक्‍खी है तुमने तोंद जो टी शर्ट नीली में
उसे भी साथ लेकर पेड़ की छुनगी तलक जाओ

इरफ़ान said...

नहीं-नहीं अब ज़रा फ़ायदा हुआ है, जब से जिम ज्वॉएन किया है.