Thursday 24 April 2008

कल के हिंदुस्तान अख़बार में रवीश का नया स्तंभ और उसमें सस्ता शेर का ज़िक्र!


हिंदी के कोई तीन हज़ार ब्लॉग्स में से "सस्ता शेर" नाम का ये ब्लॉग कल क़ाबिल-ए-ग़ौर पाया गया. शालीन और मंद-मसृढ लोग सदा ही ऐसे आयोजनों को छि:-छि: की नज़र से देखते हैं और हमें उनकी नज़र की कभी परवाह न थी, न है और न आगे रहेगी. पीठ थपथपाए जाने पर भी हम पीठ की जाँच करना नहीं भूलते कि वो अब भी बरक़रार है या नहीं!

ढूँढ उजडे हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

बहरहाल आज के हिंदुस्तान अख़बार में रवीश ने ब्लॉगचर्चा के अपने नए स्तंभ की शुरुआत आपके इस ब्लॉग "सस्ता शेर" की चर्चा से की है. कहा जाता है कि जौहरी को सोने की पहचान होती है और इस कथन का अनुवाद है कि रवीश जौहरी हैं और सस्ता शेर सोना. एक तरफ सोना बहुत मंहगा है दूसरी तरफ सोना बहुत महँगा पडता है, अगर आप घोडे बेचे बग़ैर सोए तो! इस तरह सस्ता शेर और सोना कुछ साथ सफ़र न कर सके. इस सफ़र को हिंदुस्तान अख़बारवालों ने और भी मुश्किल बना दिया, URL ग़लत छापकर. यारो को अभी यूआरएल की नज़ाकत का अंदाज़ा नहीं है और प्रिंट की परिपाटी में लाइन टूटने पर डैश लगा दिया करते हैं. कोई पूछे कि उदाहरण के लिये भाई अभय तिवारी के निर्मल आनंद तक बिना डैश के पहुँचा जा सकता है? यानी अख़बार के अनुसार अगर सस्ता शेर तक पहुँचने के लिये डैश का सहारा लें www.ramroti-aaloo.blogspot.com तो थकावट हाथ आएगी.हालाँकि www.sastasher.blogspot.com के सहारे भी सस्ती महफ़िल में पहुँचा जा सकता है. अख़बार की कतरन यहाँ पेश है,साथ में एक छोटा सा भूल सुधार भी कि इस सामूहिक ब्लॉग में अभी 31 सदस्य हैं।

कतरन पर डबल क्लिक करके आप ठीक से पढ सकते हैं. एक इत्तेफ़ाक और है कि यहीं बग़ल में ,सत्तर साल पहले आज के ही दिन इक़बाल अपने नौकर की गोद में मर गये थे, ये ख़बर भी पढी जा सकती है.

5 comments:

Anonymous said...

बहूत सही जनाब !

बधाई

VIMAL VERMA said...

सस्तगी की ओर बढ़ते कदम...बधाई हो..

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

....रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन! हाहाहा!
इरफ़ान भाई, अब आप मेरी पीठ थपथपा ही दीजिये. वादा करता हूँ कि यह नहीं जान्चूंगा की पीठ अब भी अपनी जगह सलामत है या दरहम बरहम हो गयी. आखिर रवीश जी ने अपने लेख को मेरे पोस्ट किए शेर के ज़रिये अंजाम तक पहुंचाया है.
एक सफाई:- माइल लखनवी कोई काल्पनिक नाम नहीं है. एक ज़माना था, मुम्बई के मज़ाहिया शायरों में उनका नाम बाअदब बामुजाहिजा लिया जाता था. उनकी खूबी ये थी कि वह ओरिजिनल शेर तो अश्लील लिखते थे लेकिन मुशायरों में पढ़ते वक्त अश्लील शब्द की जगह 'झाड़ू मारूं' पढ़ा करते थे. पब्लिक हंस-हंस कर पागल हो जाया करती थी. माइल ने हैदराबाद, शोलापुर, अहमदनगर, मालेगांव जैसी जगहों में कई मुशायरे लूटे हैं.

मुनीश ( munish ) said...

ye to hona hi tha. i've alvez had firm faith in this endeavour. inshaallah!

अनूप शुक्ल said...

बहुत खूब! बधाई!