जोशिम भाई, मेरे चश्मे पर तंज करके आपने ये अच्छा नहीं किया. याद रखिये, मैं 'दरख्त-ए- संस्कृति' हूँ!!!!! हा--हा-हा! ...वैसे अब मैंने अपना चश्मा अख़बार के पन्ने से पोंछ लिया है, अब ये धुंधला नहीं रहा.
अरे विजय बाबू - ओ सतना वाले बाबू जी - धुंधले चश्मे की कहानी के नायक आप नहीं - इसे समझने के लिए आपको पुराने पन्ने पलटने पड़ेंगे या मुनीश जी से गुफ्तगू करें [:-)]याद रखें उधार प्रेम की कैंची है और भूल चूक लेनी देनी और जगह मिलने पर साईड दी जाएगी [ :-)]
दोस्तो, ये तो आप महसूस करते ही होंगे कि शायरी की एक दुनिया वह भी है जिसे शायरी में कोई इज़्ज़त हासिल नहीं है. ये अलग बात है कि इसी दुनिया से मिले कच्चे माल पर ही "शायरी" का आलीशान महल खड़ा होता है, हुआ है और होता रहेगा. तो...यह ब्लॉग ज़मीन पर पनपती और परवान चढ़ती इसी शायरी को Dedicated है. मुझे मालूम है कि आप इस शायरी के मद्दाह हैं और आप ही इस शायरी के महीन तारों की झंकार को सुनने के कान रखते हैं. कोई भी शेर इतना सस्ता नहीं होता कि वो ज़िंदगी की हलचलों की तर्जुमानी न कर सके. बरसों पहले मैंने इलाहाबाद से प्रतापगढ़ जा रही बस में पिछली सीट पर बैठे एक मुसाफ़िर से ऐसा ही एक शेर सुना था जो हमारी ओरल हिस्ट्री का हिस्सा है और जिसके बग़ैर हमारे हिंदी इलाक़े का साहित्यिक इतिहास और अभिव्यक्तियों की देसी अदाएं बयान नहीं की जा सकतीं. शेर था-- बल्कि है--- वो उल्लू थे जो अंडे दे गये हैं, ये पट्ठे हैं जो अंडे से रहे हैं . .............इस शेर के आख़ीर में बस उन लोगॊं के लिये एक फ़िकरा ही रह जाता है जो औपनिवेशिक ग़ुलामी और चाटुकारिता की नुमाइंदगी कर रहे हैं यानी उल्लू के पट्ठे. --------तो, आइये और बनिये सस्ता शेर के हमराही. मैं इस पोस्ट का समापन एक अन्य शेर से करता हूं ताकि आपका हौसला बना रहे और आप सस्ते शेर के हमारे अपर और लोवर क्राईटेरिया को भांप सकें. पानी गिरता है पहाड़ से दीवार से नहीं, दोस्ती मुझसे है मेरे रोजगार से नहीं. --------------------------------------------- वैधानिक चेतावनी:इस महफ़िल में आनेवाले शेर, ज़रूरी नहीं हैं कि हरकारों के अपने शेर हों. पढ़ने-सुननेवाले इन्हें पढ़ा-पढ़ाया या सुना-सुनाया भी मानें. -------------------- इरफ़ान 12 सितंबर, 2007
सात सस्ते शेर इस महफ़िल में भेजने के बाद आपको मौक़ा दिया जायेगा कि आप एक लतीफ़ा भेज दें. तो देर किस बात की ? आपके पास भी है एक सस्ता शेर... वो आपका है या आपने किसी से सुना इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. बस मुस्कुराइये और लिख भेजिये हमें ramrotiaaloo@gmail.com पर और बनिये महफ़िल के सितारे.
14 comments:
ham dhhoontte they jinko gulistaan ke as paas
vo muskura rahe they,bayaabaan ke aas paas
आपकी कल्पना बहुत पवित्र है. शुक्रिया!... लेकिन हम यहाँ सस्ती कल्पना की तवक्को ज़ियादा रखते हैं.
पहले बयाबाँ याने क्या ?? ये तो बताईये हमे यही नहि पता तो आगे क्या फ़रमाये !!
हम ढूँढते थे जिनको गुलिस्ताँ के आस-पास,
वो सू-सू कर रहे थे, बयाबाँ के आस-पास
वाह सस्ते खाली स्थान भरें - १ सठिया / २ गरिया / ३ चिरकुटा / ४ पटपटा
I agree with Rakhshanda !
......& better u all agree with US !
तमाम दोस्तों में अब तक अवनीश जी ही थोड़ा सस्ता प्रयास कर पाये हैं. उन्हें मुबारकबाद! लेकिन इतने से ही काम नहीं चलेगा.
दीपक जी, बयाबाँ समझने के लिए चचा गालिब का एक शेर पेश है-
दर-ओ-दीवार पर उग आया है सब्ज़ा गालिब,
हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है.
जोशिम जी, इस शेर की जड़ (मूल भावना) तक पहुँचने के लिए अभी आपको पर्याप्त सस्ता होना पड़ेगा. वैसे इन चार सुंदर प्रयासों के लिए धन्यवाद!
मुनीश जी की धमकी के लिए चचा गालिब का एक मिसरा-ए-उला पेश करता हूँ-
धमकी से डर गया जो न बाब-ए-नबर्द था....
लगे रहो टुन्नाभाई! 'आओ थोड़ा और सस्ता हो जाएं.'
bhah ji bhah .....
are yaar sanskriti bhi koi cheez hai ki nahin ! baat saste mahange ki nahin cultural values ki hai jo yahan kam se kam kisi mein to hain !
yes boss - completely agree with you - like i said before - कसम धुंधले चश्मे वाले की!!! [ :-)]
जोशिम भाई, मेरे चश्मे पर तंज करके आपने ये अच्छा नहीं किया. याद रखिये, मैं 'दरख्त-ए- संस्कृति' हूँ!!!!! हा--हा-हा! ...वैसे अब मैंने अपना चश्मा अख़बार के पन्ने से पोंछ लिया है, अब ये धुंधला नहीं रहा.
अरे विजय बाबू - ओ सतना वाले बाबू जी - धुंधले चश्मे की कहानी के नायक आप नहीं - इसे समझने के लिए आपको पुराने पन्ने पलटने पड़ेंगे या मुनीश जी से गुफ्तगू करें [:-)]याद रखें उधार प्रेम की कैंची है और भूल चूक लेनी देनी और जगह मिलने पर साईड दी जाएगी [ :-)]
HA..HA..HA..HO...HUUU...GARRRR!
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