चचा असद से क्षमा याचना के साथ. .....
आज उतनी भी मयस्सर नहीं मयखाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में
मुई मंहगाई ने कुछ इस तरह से मारा है
जख्म सहलाते हैं देसी शराबखाने में
दिन हैं ऐसे कि भूले हैं चिप्स, पापड़, सलाद
घर में घुसते ही शुरू होता है यूं दंगा-फसाद
स्वाद की बात न कर, बदले हैं ये दिन ऐसे
स्वाद अब खोजते फिरते मटर के दाने में
Monday, 14 April 2008
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5 comments:
मटर के दाने हैं, गनीमत है
मंहगाई बढ़ गयी, हक़ीकत है
ना सहला ज़ख्म बस पिये जा
स्वाद खोजना,फालतू फजीहत है
आपसे माफी और सस्ता यूँ -
आज इतनी भी मयस्सर नहीं पैमाने में
जितनी वो उगल दिया करते थे गुसलखाने में
[ note - मयखाना उपयोग इसलिए नहीं किया गया क्योंकि मयखाने के पहले कष्टमर हम हैं -
अब वो अपने शब्दकोष में संरक्षित शब्द है ]
अब उन को मनाएं तो मनाएं कैसे
मेरे महबूब छुपे बैठे हैं पैखाने में ।
मय को वीभत्स रस से न जोड़ो,
क्या छुड़ाने की कसम खाई है?
देसी नेमत है, इस मंहगाई में,
ऐ दाना-ए-मटर तेरी दुहाई है.
मटर के दाने चलेंगे कब तक
दाँत सलामत है तब तक
टूथ्पेस्ट मजबूत चाहिये ,मामला संगीन है’
पेहले थे बत्तीस अब बस तीन है
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