Tuesday, 1 April 2008

उल्लू का पट्ठा दिल


उदयपुर के प्यारे नौजवान पल्लव ने एक नई पत्रिका 'बनास' का पहला अंक निकाला है।यह अंक कथाकार स्वयं प्रकाश पर केंद्रित है.अभी पढ रहा हूं .इसी में छपे एक शेर पर निगाह टिक गई ,सो हाजिर है.पल्लव प्यारे मुझे पूरे बनास पर लिखना है.आखिर मैं आपसे पूरी नदी मांगकर लाया हुं. अभी माफ़ करेंगे.यात्रा की थकान -खुमार उतरने तक यह शेर तो चलेगा ही -

कह रहा है ले चलो फ़िर कूचा-ए-कातिल मुझे,
जूतियां पड़वाएगा उल्लू का पट्ठा दिल मुझे .

8 comments:

राज भाटिय़ा said...

अरे मिंया आप तो जुतिया उठा ही लाये,कहां से लाते हो इतने सस्ते सस्ते शेर,ओर हमे भी आदत पड गई हे इन सस्ते शेरो की, धन्यवाद

अमिताभ मीत said...

वाह वाह ! भाई छा गया ये शेर. वाह, एकदम लाजवाब.

दिनेशराय द्विवेदी said...

पड़वाने के लिए जूतियाँ खूबसूरत चुनी हैं।

Unknown said...

वाह - क्या मोजरी शेर है

अनूप भार्गव said...

वाह जूतियां तो हैं लेकिन मखमल में लिपती हुईं ...

मुनीश ( munish ) said...

maar daala! adbhut , unparalleld ,matchless, sublime poetry!!

मुनीश ( munish ) said...

matchless, adbhut ! vah!

Devi Nangrani said...

Achi lagi, makhamali vo chapalein, aur shabdon ke vo surmayi jaal

Devi