Thursday 13 March 2008

हैं शेर-पहम सब मेरे साले कमाल के

शायर अगर मुश्किलों न घिरे तो बड़ा शायर नहीं बन सकता. पापुलर मेरठी साहब की मुश्किलें देखिये. आख़िर एक शायर को क्या चाहिए? दाद (ग़लत मत समझिए, मैं वाह वाह की बात कर रहा हूँ) . लेकिन साहब को उनके सालों से मिली तारीफ गंवारा नहीं है. वो लिखते हैं;

हैं शेर-पहम सब मेरे साले कमाल के
बैठे हैं शायरी का समंदर खंगाल के
तारीफ कर रहे हैं वो यूं मेरे शेर की
कागज़ पर रखा दिया है कलेजा निकाल के

उनकी एक और मुश्किल के बारे में बताते हुए लिखते हैं;

रहा करता है खटका जाने क्या अंजाम हो जाए
ख़बर ये आम हो जाए तो फिर कोहराम हो जाए
मोहब्बत हो गई है डाकू सुल्ताना की बेटी से
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए

4 comments:

मुनीश ( munish ) said...

पहले इस से के शाम हो जाए ,
आओ एक ठो' जाम हो जाए !
स्वागत है हे ब्लॉग नंदन !

azdak said...

ठाड़े होंगे सलम दीवार से

बहाने जिगर का पानी

पता चले ऐ मेरठी
वहीं

ज़िंदगी का ख़ूं तमाम हो जाये.

अमिताभ मीत said...

हुए वो पॉपुलर क्यों आज तक समझे नहीं बंधू ?
कहीं पर नाम हो जाए कहीं बदनाम हो जाए
जो सुल्ताना की बेटी ही मिली थी इश्क़ करने को
तो इस की फिक्र क्या कब ज़िंदगी की शाम हो जाए

Anonymous said...

दिल हो जिगर में फ़िक्र होती है तब तलक
सीने में दिल न हो तो जीने की भी क्या ललक

बेदिल को फ़िक्र क्या, मैं बेफिक्र ही जिया
जिस दिन से सुल्ताना की बेटी को दिल दिया